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Showing posts from 2020

चाय

सुबह का माहौल था। घर में वही हड़बड़ मची हुई थी जो अमूमन हर घर में देखने को मिलती है। प्रखर अपनी सात-वर्षीय बेटी नेहा को स्कूल के लिए तैयार कर रहा था। उसकी पत्नी विद्या रसोई में नाश्ता तैयार कर रही थी। विद्या के पिताजी अब इनके साथ ही रहते थे। वो बालकनी में अपनी कुर्सी लगा रहे थे, जहाँ पर वो नवंबर की मीठी धूप का आनंद लेकर आराम से अपनी किताब पढ़ सकते थे। प्रखर के माँ-बाप उसके भाई-भाभी के साथ पास के अपने घर में रहते थे।  नेहा को तैयार कर, प्रखर रसोई में झांकते हुए पूछता है, "तुम्हे कोई मदद लगेगी मेरी?" अपने काम में तल्लीन विद्या ने बिना नज़रें उठाये बस छोटा सा "नहीं" कहा। प्रखर "ओके" बोलकर बाहर बैठक में आ बैठता है।  सोफ़े पर बैठ वो सुबह का अख़बार उठाता है और पन्ने पलटते हुए खबरों को छानता जाता है। खबरें भी वही की वही। कहीं किसी नेता ने घोटाला कर दिया, शहर में एक-आध क़त्ल की घटनाएं, और किसी छोटे से 'सेलिब्रिटी' के किसी कथन पर सोशल मीडिया में कोई नया बवाल हुआ तो उसको लेकर अलग-अलग सबके विचार।  अब तक विद्या नाश्ता तैयार बनाकर टिफ़िन का डब्बा तैयार कर लिया था। वो न...

मैं

खुद को खुदा में खोजता भी मैं  और खुद को ज़र्रा सोचता भी मैं  इंसानों में नायाब, बेनज़ीर भी मैं  और यूं ही बिखरा मुन्तशिर भी मैं  मेरे हसरतों से जूझता भी मैं  मेरे तोहमतों से टूटता भी मैं  मेरे ख़ल्क़ में शामिल भी मैं  मेरे अक्स का कातिल भी मैं  मेरे अहम् से बड़ा भी मैं  आज रस्ते पर खड़ा भी मैं  ऊपर से अशफ़ाक़ भी मैं  इरादों से नापाक भी मैं  इस दुनिया का मुसाफिर भी मैं  दुनियादारी का काफिर भी मैं  इस मायाजाल का अनुरागी भी मैं  सब छोड़ चला वो बैरागी भी मैं  सब का रचयिता इलाही भी मैं  वो कालरूप तबाही भी मैं  ईमान में बसता स्याही भी मैं  कौड़ियों में बिकता वाहवाही भी मैं  ख़ज़ानों से बड़ा औकात भी मैं  और कौड़ी से कम की खैरात भी मैं  सड़कों पे गुस्साई भीड़ भी मैं  और ऑफिस में गायब रीढ़ भी मैं  फ़रक मिटाने का मांग भी मैं  थप्पड़ से पौरुष जताता स्वांग भी मैं  युगों-युगों का संस्कार भी मैं  संस्कार का ढाल लिए धिक्कार भी मैं  जब इतना द्वंद्व तो कौन हूँ मैं? अंदर है शोर, बाहर म...

A Man Faced with his Mortality

What would I do if I had 30 days to live? Or 60 days? Or let us give me some more time, and say I had half a year to live…a full 180 days (Of course I need these many days if I want to spend the last few days touring the world, waiting for the COVID19 situation to get over and manage the visa hassles)? Anyway, the question is, what would I do if I had a defined period of time left? If I had a deadline… Would I go on a world tour, a thing I always wanted to do? Visit all the places I ever wanted to visit. Would I visit the Mediterranean nation of Malta? Or the Vikings land of Iceland, with fabulous black sand beaches and angry volcanoes? Or perhaps I would visit the island of Madagascar and pay my obeisance to King Julien. Or would I try everything I never considered doing? Maybe I would want to have a drink, make a toast to the life lived and the one that may never be lived. Perhaps I will taste all varieties of alcohol, from the best my pockets allow to the local varieties, which ...

रवानगी

"अरे माँ... रहने दो ना। खाने का सामान मत रखो यार। नहीं ले जा पाउँगा ना। खाना मैं ट्रैन की पैंट्री से ही खा लूंगा। बेकार का बोझ बढ़ेगा और डिब्बा कहाँ रखूँगा फिर?", रजत अपना बैग जमाते हुए माँ से बोला। "अरे बेटा, मैं जगह बना दूँगी बैग में। तू खा लेना। ये बाहर का तेल-मसाले वाला गन्दा खाना से तो अच्छा ही होगा।", अनामिका शर्मा, रजत की माँ, बोली। माँ-बेटे की लड़ाई में बीच-बचाव करते हुए शर्मा जी ने अख़बार से नज़रें हटाई और बोले "अच्छा सुनो। लड़का पहली बार जा रहा है। शांति से जाने दो। मन ठंडा रहेगा तो काम कर पायेगा।" "आप तो ज़्यादा वकील ना बनो घर पे। अपनी वकालत कोर्ट तक ही रखो आप।", पति को बेटे की तरफदारी करते देख अनामिका बोली। शर्मा जी वापस अपने अख़बार की तरफ मुड़ गए। उनको पता था की ये सब चलता ही रहेगा। अख़बार पढ़ते-पढ़ते ही कुछ देर बाद उन्होंने रजत को बोला, "अरे देख तो लो की ट्रैन सही समय पे है की डिले हो गयी है।" रजत बैग जमाना छोड़ पलट के पापा के तरफ देखता है। देखा की पापा अभी भी अपने अख़बार में ही लगे हुए हैं। उसने अपने जेब से मोबाइल निकल के उ...

या कुछ और

तुम्हे पुष्प कहूँ या कुछ और जूड़े में पिरोया अलंकार हो या कानों में गूंथा श्रृंगार हो तुम्हे कष्ट कहूँ या कुछ और स्वप्नलोक से निकालने वाली ध्वनि हो झरोखों से छन कर आँखों मे पड़ने वाली रोशनी हो तुम्हे पूजा कहूँ या कुछ और होमाग्नि से निकलने वाली पुनीत धुंआ हो मन मंदिर में मांगी गई दुआ हो तुम्हे जीवन कहूँ या कुछ और इस नश्वर देह को चलाने वाली श्वास हो मेरे मन को मनाने वाली उल्लास हो तुम्हे मरीचिका कहूँ या कुछ और सैंकड़ों फूलों में घिरा महापद्म हो या काल के क्षणिक गुण में मिला एक छद्म हो तुम्हे हवा कहूँ या कुछ और जेठ की दुपहरिया में चली एक बयार हो और ढलती जवानी में फिर चढ़ता एक खुमार हो तुम्हे सियाही कहूँ या कुछ और मेरे अंतःमन मे ठहरा एक विचार अक्षिता हो या अनायास ही कागज़ पर लिखी एक कविता हो तुम्हे ये कहूँ या वो, और कहूँ भी तो क्यों वो शब्द कहाँ से लाऊँ जो तुम्हे अलंकृत करे तुम्हे ये कहूँ या वो, और कहूँ भी तो क्यों कुछ कहने से ना तुम बदलोगी, ना मैं