या कुछ और
तुम्हे पुष्प कहूँ या कुछ और
जूड़े में पिरोया अलंकार हो
या कानों में गूंथा श्रृंगार हो
तुम्हे कष्ट कहूँ या कुछ और
स्वप्नलोक से निकालने वाली ध्वनि हो
झरोखों से छन कर आँखों मे पड़ने वाली रोशनी हो
तुम्हे पूजा कहूँ या कुछ और
होमाग्नि से निकलने वाली पुनीत धुंआ हो
मन मंदिर में मांगी गई दुआ हो
तुम्हे जीवन कहूँ या कुछ और
इस नश्वर देह को चलाने वाली श्वास हो
मेरे मन को मनाने वाली उल्लास हो
तुम्हे मरीचिका कहूँ या कुछ और
सैंकड़ों फूलों में घिरा महापद्म हो
या काल के क्षणिक गुण में मिला एक छद्म हो
तुम्हे हवा कहूँ या कुछ और
जेठ की दुपहरिया में चली एक बयार हो
और ढलती जवानी में फिर चढ़ता एक खुमार हो
तुम्हे सियाही कहूँ या कुछ और
मेरे अंतःमन मे ठहरा एक विचार अक्षिता हो
या अनायास ही कागज़ पर लिखी एक कविता हो
तुम्हे ये कहूँ या वो, और कहूँ भी तो क्यों
वो शब्द कहाँ से लाऊँ जो तुम्हे अलंकृत करे
तुम्हे ये कहूँ या वो, और कहूँ भी तो क्यों
कुछ कहने से ना तुम बदलोगी, ना मैं
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