घाट बनारस

“झ्स्स…” की आवाज़ के साथ वैदेही ने माचिस जलाई और कमरे के अंधकार में माचिस की आभा में उसका चेहरा दीप्तिमान हो उठा। एक पल तो ऐसा था जब राघव को उसका चेहरा छोड़ और कुछ दिख ही नहीं रहा था। वैदेही ने माचिस से लालटेन की बाती को जलाया और पूरा कमरा उसके बसंती रोशनी से नहा गया। वैदेही ने उस पर शीशे की चिमनी डाली, जो सतत इस्तेमाल से थोड़ी स्याह हो चली थी।

राघव ने कहा, “लाइट वापस आती है तो चिमनी साफ कर देता हूँ।”

“आराम से करना”, वैदेही ने कहा, “पिछली बार तुमने जल्दी कर दी थी, और पानी पड़ते ही वो चटक गई थी। एक्सट्रा खर्चा नहीं करना है।”

राघव वैदेही की इस बात पर उसकी तरफ़ दो पल टकटकी लगा कर देखता रहा।

“क्या? मैं बस आगाह कर रही थी। अगले महीने दिल्ली जाना हुआ तो टिकट के खर्चे हो सकते हैं, इसीलिए बोल रही थी।”

“जी, मेम साहब।” राघव ने इस तर्क को सही मानते हुए वैदेही को सलाम ठोक दिया।

राघव और वैदेही को थोड़ा ही अरसा हुआ था बनारस आए हुए। बिजली ने तो रस्म बना ली थी हर शाम को मुंह चुराने की। अगर शाम को ठंडी हवा बहती तो ये छत पर हवा खा लेते थे। नहीं तो इन्होंने भी संध्या तिमिर को आत्मसात करते हुए शाम को कहीं बाहर जाने का कार्यक्रम बना लिया था। कभी शहर के गोदौलिया बाज़ार में, कभी घाट पर, और कभी बस गली का छोटा चक्कर ही लगा लिया और नुक्कड़ पर मलाई वाली लस्सी पी लिया।

आज शाम को भी वही हाल था। बिजली चली गयी थी, और बनारस की गर्मी घर में बैठे रहने की चेष्टा पर अपनी अस्वीकृति प्रस्तुत कर रही थी। हार कर दोनों जन ने घाट की ओर जाने का सोचा। लालटेन की बाती को नीचे कर, किवाड़ को ताला मार कर दोनों पैदल निकल लिए घाट की ओर।

सामान्यतः ये दोनों दशाश्वमेध घाट पर ही जाकर समय बिताते थे। आज थोड़े से बदलाव की इच्छा कर ललिता घाट की तरफ़ कदम बढ़ा दिये। माँ गंगा के तीरे चलते-चलते दोनों करीब दस मिनट बाद जाकर ललिता घाट पहुँचे। घाट पर एक साफ़-सुथरी जगह देख कर दोनों बैठ गए।

शाम तो हो ही चुकी थी। गंगा जी की तरफ़ से ठंडी हवा आकार इनके चेहरों को सहला रही थी। कभी-कभी उस बयार में दिन भर की ऊष्मा भी गंगा जी अपने आशीर्वाद की तरह भेज रही थी। मगर जो भी था, यहाँ होना घर की गर्मी झेलने से बेहतर ही था।

बैठे-बैठे दोनों आस-पास के नज़ारे देख रहे थे। मणिकर्णिका घाट के महा शमशान की चिताएँ एक अद्भुत वैषम्य बना रही थी बिजली जाने कारण हुए अंधेरे से। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह धधकती आग आस-पास की कालिमा को चीर कर सब को अपनी ओर सम्मोहित कर रही थी। दोनों शांति से एकटक उधर देखते रहे। कितनी देर, ये किसी को नहीं पता। समय मानो थम सा गया था।

“जो आज चला गया वो कितना कुछ अपने में समेटे चला गया ना? कितनी आकांक्षाएँ, कितने दुःख, कितने अरमान...खुद के लिए, अपने पति-पत्नी के लिए, अपने बच्चों के लिए।” वैदेही अनायास ही बोल पड़ी।

राघव ने वैदेही को देखा मगर वो अभी भी उन जलती चिताओं को देखे जा रही थी। कभी-कभी वह इतनी गूढ़ बातें कर के राघव को अचंभित कर देती।

“उसने शायद कुछ प्लान कर रखा होगा ना? कि कल कुछ करना है। जब बच्चे बड़े हो जाएंगे तो शायद दोनों पति-पत्नी कहीं घूमने जाएंगे। शायद ऐसा कुछ करते जो सिर्फ उसकी हसरत बन के रह गयी आज।” राघव ने भी उस विषय पर अपनी बात जोड़ दी।

“सोचो, तुम्हें पता लगे की तुम कल मरने वाले हो तो आज क्या करोगे?”

“अरे शुभ-शुभ बोलो भाग्यवान! इतनी जल्दी पीछा नहीं छूटे…” राघव बोलते-बोलते रुक गया।

वह सोचने लगा कि क्या गारंटी है कि वह कल मृत्यु को प्राप्त नहीं होगा। इसकी भी क्या गारंटी है कि कल का सूरज वह देख सकेगा।

“क्या सोचने लगे? मुझे अगर पता हो तो मैं आज का हर लम्हा तुम्हारे साथ बिताऊँगी। और तुम्हारी पसंद की सारी चीज़ें बना के खिलाऊंगी।” वैदेही ने मुसकुराते हुए कहा।

“मुझे नहीं पता मैं क्या करूँगा।” राघव ने सोचते हुए कहा। “शायद मैं तुमसे वो सारी बातें करूँगा जो मैंने आज तक नहीं की। वो सब कि मैं तुम्हें कितना खुश देखना चाहता हूँ। शायद ये भी की मुझे तुममें क्या नुक्स दिखाई देते हैं।”

“नुक्स?! मुझ में?” तनी भृकुटियों के साथ वैदेही ने पूछा। मगर उसकी शरारती मुस्कान साफ़ बता रही थी की वो राघव के साथ हंसी कर रही थी।

“कितना कुछ मैं छोड़ जाऊंगा, यार! क्या मैं बस अपने लिए ही जी कर चला जाऊंगा? क्या मुझे दुनिया को कुछ वापस नहीं करना चाहिए? शायद कुछ पैसे अनाथालय को दे दूँ, शायद कुछ हज़ार पेड़ों के लिए दान कर दूँ, शायद किसी वांछित तबके के लिए कुछ कर दूँ।”

राघव बोलता रहा। “और अगर मैं ये सब कर भी देता हूँ तो कितना ही फ़ायदा हो जाएगा इनको? मैं खुद नहीं जानता की मेरा महत्व क्या है इस दुनिया में। मैं कितना ही कुछ कर लूँगा।”

“अगर बहुत कुछ नहीं कर सकते तो थोड़ा भी नहीं करना उचित है क्या? हम ये क्यों देखें कि कितना बड़ा बदलाव ला रहे हैं? क्या इतना देखना काफ़ी नहीं कि हम बदलाव कर रहे हैं, चाहे जितना भी छोटा हो।” वैदेही ने अपने हिसाब से अपना वक्तव्य दिया।

“बात तो सही कह रही हो।”

“सिर्फ इतना ही नहीं; तुम्हें ये भी सोचना चाहिए…तुम्हें क्या, मुझे भी ये सोचना चाहिए की अगर ये सब अंत में करना ही है तो मरने की भविष्यवाणी की प्रतीक्षा क्यों करना। ये सब हम आज ही क्यों ना कर लें?”

राघव कुछ देर तक सोचता रहा, कोशिश करता रहा कि इन सवालों के बादलों में से छन कर कोई रोशनी की किरण आए। वैदेही ने भी सोचा कि अभी इसे टोकना सही नहीं होगा। वह भी अब सामने नज़रें दौड़ाने लगी। नाँव में बैठे सैलानी घाट दर्शन कर रहे थे। घाट पर फ़ेरी वाले अपने समान के लिए आवाज़ दे रहे थे। पास एक बच्चा अपने माता-पिता से एक फ़ेरी वाले से बुड्ढी के बाल दिलाने का हठ कर रहा था। इतने में ही घाट पर लगी बत्तियाँ जगमगा उठी।

“चलो, बिजली आ गयी। घर चलते हैं, खाना बनाना है।” कहकर वैदेही उठने लगी।

“नहीं।” राघव ने उसका हाथ थाम कर वापस नीचे बैठने का इशारा किया। “खाना बाहर खा लेंगे। मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।”

“नुक्स बताने हैं तो रहने दो।”

“वो भी करना है, लेकिन ढेर सारी और बातें करनी हैं। जिन्हें आज नहीं किया तो शायद कल देर हो जाए।”

वैदेही वापस राघव के पास बैठ गयी। दोनों आपस में बात करने लगे। पीछे फ़ेरी वाले की हांक और बच्चों की ज़िद अब पार्श्व ध्वनि में विलीन हो गयी थी। अब गंगा जी से आती बयार शीतल हो चली थी। बनारस के घाट पर आज शायद इनको मुक्ति ना मिली हो, मगर जीवन यापन करने का एक नया दृष्टिकोण अवश्य मिल गया था।

Comments

  1. परम सत्य को सहजता से उजागर कर दिया आपने 🙏👍

    ReplyDelete
  2. Bahut badhiya rachna

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद 🙏

      Delete
  3. Akanksha Tiwari23 July 2022 at 06:34

    Bohot sunder. Pata hi nahi chalta ki lekhak ne aaj tak banaras nahi dekha hai....

    ReplyDelete
    Replies
    1. घर बैठे बनारस का आनंद लेने में और लोगों को चिंतन में भेजने में महारत हासिल है मुझे। 😋

      धन्यवाद 🙏🙏🙏

      Delete
  4. Bahut Badhia, likhtey rahey aur khush rahey sath mey hanstey rahey yehi meri.

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका अशेष धन्यवाद

      Delete
  5. बढ़िया लघुकथा है। सरल और प्रवाहपूर्ण !

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद रंजन भैया

      Delete
  6. Varanasi❤️

    ReplyDelete
    Replies
    1. अंत भी यही, अनंत भी यही

      Delete
  7. अक्षय दीप23 July 2022 at 22:51

    जैसे जैसे आपकी आयु बढ़ती है और आप जिंदगी जीते हैं, वैसे वैसे आपकी पसंद की चीज़ें स्वतः काम होने लगती हैं। और कुछ वक्त के थपेड़ों के साथ यह पसंद 1 या 2 चीजों पे आ टिकती हैं। मौत की सत्यता पर किसी को कोई शक नहीं लेकिन जद्दोजहद और मोह माया में इंसान ये सब भूल जाता है। कभी कभी लगता है जैसे ठीक ही है। हमारी तरह निराशावादी लोगों के लिए बिल्कुल उचित। अफसोस की प्राप्ति से आसान मौत ही अच्छी! वैसे ये सब दर्शन की बातें है। सकारात्मकता है आपके लेखन में। और शीतल है बिल्कुल, गंगा से चल रही बयार की तरह। आपको साधुवाद। आपका लेखन आपकी तरह परिपक्व हो रहा है! हमारी शुभकामनाएं!

    ReplyDelete
    Replies
    1. बस सर् इतना बोल दिए। छाती चौड़ा हो गया हमारा।

      Delete
  8. Durgesh Banerjee24 July 2022 at 10:10

    Shaandaar Zabardast Zindabaad

    ReplyDelete
  9. Bohut badhiya likha hai

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद अज्ञात जी

      Delete
  10. Prasadant .. pashchimokti pratikshit..

    ReplyDelete
    Replies
    1. बिना परिपेक्ष के कुछ समझ नहीं पाया। और शायद दर्शन इतना गूढ है कि परिपेक्ष के बावजूद समझ नहीं पाता।

      Delete
  11. बड़ी सहजता से कहानी मैं अपनेपन का एहसास दिला दिया । आगे ऐसी और कहानियाँ पड़ने का इंतज़ार रहेगा ।

    ReplyDelete
  12. That's absolutely amazing....thought provoking !

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

दूसरा अध्याय

A Man Faced with his Mortality

Pro Tips on Trekking (by an Amateur)