दूसरा अध्याय

मृत्यु एक घटना है
वो सिर्फ बर्फ़ की तरह
सुन्न कर देती है
पीड़ा बाद में आती है
काल की तपन में
बूँद-बूँद पिघलती हुई।
-निर्मल वर्मा

शायद वो मृत्यु ही तो थी। किसी इंसान की नहीं। लेकिन जीवंत, ज्वलंत और जिजीविषा से भरपूर एक जीवन की। उसका एहसास मुझे तब नहीं हुआ था। ऐसा था मानो किसी ने एक झटके से मेरे सीने से दिल निकाल लिया था। लेकिन धमनियों में खून उसके बाद भी प्रवाहित था। वही खून मुझे पिछले पाँच महीने से चला रहा था। और मैं बस चल ही रहा था। बिना किसी भावना, किसी सोच के।

पाँच महीने पहले वो अचानक से चली गयी। घर से भी, और मेरी ज़िंदगी से भी। मेरे लिए तो वो अचानक  ही था। मगर शायद उतना भी अचानक नहीं था। जिस मकान को हम दोनों ने ईंट दर ईंट बनाया था, जिसे अंततः घर बनाना था, उसकी नींव में कब अविश्वास और नाखुशी ने घर कर लिया था, इसका मुझे एहसास भी नहीं था। शायद था भी, लेकिन मैंने ही उसे अनदेखा कर रखा था। और पाँच महीने पहले वो मकान अचानक भरभरा के गिर गया। उसने अपना सारा सामान समेटा और चली गयी अपनी सहेली के यहाँ। कुछ दिन तो मैं उसे ही दोषी मानता रहा, उसे ही कोसता रहा। लेकिन सच तो मुझे भी मालूम ही था। उस पूरे किस्से का असल गुनहगार तो मैं ही था।

उसी अपराध बोध में मैं पीछले पाँच महीने से जी रहा था। सिर्फ़ यही सोचता रहता था की क्या सही कर सकता था। हमारे रिश्ते के बिगड़ने का एहसास मुझे पहले ही क्यों नहीं हुआ? जैसे खाली बैठो बस यही खयाल दिमाग में घर कर लेता था। जब तक ऑफिस में रहता था तो काम के धुन में कुछ और सोचता नहीं था, लेकिन जैसे ही घर के ताले में चाभी घुसी, वैसे ही मानो यादों का सैलाब उमड़ आता था। इसी घर में हम दोनों डेढ़ साल से लिव-इन में थे। उसकी महक इसमें आज भी तैरती थी। दरवाजा खोलते ही पहले उसी का एहसास होता था। और फिर आते थे उसकी यादों के थपेड़े। एक के बाद एक। सोचा भी कि घर बादल लूँ, शायद इसी बदलाव से दिमाग थोड़ा सही हो। लेकिन एडवांस दिया हुआ था और मकान मालिक बूढ़े थे तो उनसे मांगने में भी अच्छा नहीं लग रहा था। जगह भी ऑफिस से ज़्यादा दूर नहीं थी तो कोई मतलब नहीं बन रहा था की इस वक़्त घर बदली की जाए।

लेकिन कमबख्त इस दिमाग का क्या करें? इसे तो घर के हर कमरे, हर दीवार पर उसी के निशान मिलते थे। उसने सजाया भी बहुत अच्छे से था। सारे आइडिया उसी के थे। कौन से पर्दे आएंगे, कहाँ पौधे लगाएंगे, फ़र्निचर कैसे आने हैं, वगैरह-वगैरह। मैं बस उसके पीछे-पीछे चल देता था। जो जहां उसने कहा, वैसा कर दिया। मकान को घर कैसे बनाना है, ये बस लड़कियों को ही आता है। शायद ये सच है, या शायद ये मेरी पितृसत्ता वाली सोच है जो लड़कियों को एक बक्से में कैद रखना चाहती है। अगर वो उस बक्से से निकाल भी जाए, तो भी उनका आँचल उसमें फंसा कर रखने वाली सोच। पर शायद थोड़ी सच्चाई तो थी इस बात में। क्योंकि जब मैं अपने इंजीनियर दोस्तों के साथ रहता था पहले-पहले, तब तो मानो घर ऐसा लगता था, जैसे अभी-अभी कोई तूफान वहाँ से हो कर गुज़रा हो। असल में रहना किसे कहते हैं, वो मैंने इसी घर में उसके साथ ही सीखा था। और आज यही घर... या शायद ये मकान... मुझे काटने को दौड़ता है।

कोई नज़र दौड़ाए तो सब कुछ उसे यहाँ अस्त-व्यस्त दिखाई पड़ेगा। सामान इधर-उधर फेंकें हुए थे। पिज्जा के बक्से ऐसे ही पड़े हुए थे। शायद उन्हें पड़े-पड़े दो दिन हो गया था। या तीन। किसे पता? और किसे ही फर्क पड़ता है ये जान के? बियर और शराब की बोतलें अब बैठकखाने में ही पहाड़ का रूप लेने लगी थी। रसोई में जाओ तो मालूम नहीं बर्तन कब से धुले नहीं। हाँ, ये था कि सुनील भैया आ जाते थे तो कपड़े धुल जाते थे। नहीं तो पता नहीं ऑफिस में भी क्या हाल होता। पीछले पाँच महीने से मैं सिर्फ़ पिज्जा, मैगी, शराब और ग्लानि के पौष्टिक आहार पर जी रहा था।

आज शनिवार का दिन था। और सुबह-सुबह रात की पड़ी बियर से कुल्ला करके उसी में जीने की वजह खोज रहा था। तभी मेरी इस प्यारी सी ज़िंदगी की शांति भंग हो जाती है। दरवाजे पर किसी ने घंटी बजाई थी। या शायद रात के नशे में मेरे ही दिमाग में वो बज रही थी। मेरी जैसी स्थिति थी, उसमें असल और कल्पना में फ़र्क करना थोड़ा मुश्किल हो गया था। घंटी फिर से बजती है। इस बार थोड़ी ज़्यादा ही ज़ोर से। कल्पना नहीं, ये शायद असल में ही हो रहा था। मैं सोचने लगा की मुझसे मिलने कौन आ गया। वो भी इतनी सुबह और वो भी छुट्टी के दिन। अभी तो धोबी भैया के आने का भी समय नहीं हुआ था। जैसे-तैसे बैठक में सामान के टापुओं से बचते-बचाते मैं दरवाजे तक पहुंचा और दरवाजा खोलता हूँ तो एकदम से आँख चौंधिया जाती है। आँखें मीच के देखा तो पता लगा की कल्पना ही थी।

मतलब दरवाजे पर मेरी दोस्त कल्पना खड़ी थी।

“तुम... यहाँ...” मेरी ज़बान सही शब्दों के चुनाव में लगी हुई थी की उतने देर में उसने मुझे परे किया और अंदर चली गयी।

“घर की क्या हालत बना रखी है तुमने।" नाक-भौं सिकोड़ कर उसने उस जगह का मुआयना किया जहां मानो आणविक बम का विस्फोट हुआ था।

मैं दरवाजे को बंद करने ही जा रहा था की उसने करने से मना कर दिया। फिर उसने कमरे की एक खिड़की खोल दी। मेरी आँखें जो अब थोड़ी नॉर्मल हो चली थी, वो फिर से चौंधिया गयी। साथ ही ठंडी हवा का झोंका मानो ऐसे लगा जैसे किसी ने ठंडे पानी से यकायक ही नहला दिया हो। लगभग-लगभग मेरे दाँत किटकिटाने ही लगे थे।

“पता नहीं क्या हो गया... अजीब इंसान है...” अपने ही मन में बुदबुदाते हुए उसने फिर एक-एक करके सारी खिड़कियाँ खोल दी कि क्रॉस-वेंटीलेशन हो सके। मैं अभी भी भौंचक्का ही खड़ा था। कल रात की पी हुई शराब ने अभी भी मेरे दिमाग को अभी भी पूरी तरह से काम करने से रोका हुआ था। मैं सोच ही रहा था की कुछ बोलना है या कुछ करना है अभी या इसको जो करना है उसे करने देते हैं। बुदबुदाते हुए ही उसने सोफ़े से सारा सामान नीचे रखा और मुझे बैठने बोला। मैं रोबोट सा उसके निर्देश का अनुसरण करते हुए बैठ गया।

“हाँ भाई, क्या करना है? क्या हाल बना कर रखा हुआ है? और कब तक ऐसे रहने का प्लान है?”

मेरे पास कोई जवाब नहीं था। अब इस बात का पता लगाना थोड़ा मुश्किल था की ये नशे की वजह से है या शायद इस वजह से की मैंने ठीक से अभी तक उस रिश्ते के समापन को स्वीकार नहीं किया था।

फिर वो खुद ही बोल पड़ी। "सुन, ये सब अब ज़्यादा नहीं चलेगा ब्रो। थोड़ा सा खुद के लिए सोचना होगा। तू जा के नहा ले। और हाँ, अच्छे से करना। शेव, शैम्पू, फ़ेस वॉश, जो जो है सब यूज़ कर लेना। लेट्स हैव अ प्रोपर न्यू स्टार्ट।"

अब मैं रोबोट कहाँ उस बात को टाल सकता था। शायद मैं टालने की स्थिति में भी नहीं था या फिर अंदर-ही-अंदर मुझे भी मालूम था कि जो वो बोल रही है ठीक ही बोल रही है। तौलिया लेकर मैं बाथरूम के तरफ बढ़ा ही था कि उसने फिर आवाज़ लगाई।

“राजेश भैया को आने कहा है मैंने। अभी पाँच मिनट में आ जाएंगे। उनको बोला है कि काम काफी ज़्यादा है। और डिस्गस्टिंग भी। उन्होंने कहा कि कोई प्रॉब्लम नहीं है। वो आकर घर साफ कर देंगे। तू उनको हज़ार रुपये दे देना।“

मैंने हामी भर दी। पता नहीं आवाज़ निकली भी थी कि नहीं। दिमाग अभी भी ठीक से काम नहीं कर रहा था तो पता नहीं लग रहा था कि बोला कि नहीं बोला। मगर मेरे विचार में मैंने इस बात के लिए हामी भर दी थी।

बाथरूम में घुस ही रहा था तो फिर से उसकी आवाज़ आई। “मैं चाय बना रही हूँ। तू पियेगा?” कहकर वो शायद रसोई की तरफ बढ़ी होगी क्योंकि फिर से उसकी आवाज़ आती है, “अरे यार, ये इंसान कैसे रहता है यहाँ? ज़ोमैटो से ही मँगवा लेती हूँ। कुछ और खाएगा तू?”

मैंने कहा कि कुछ नहीं चाहिए। लेकिन तब तक मैं शावर चालू कर चुका था और पानी के वेग में शायद मेरी आवाज़ गुम हो गयी थी। शावर का ठंडा पानी पड़ते ही शरीर और दिमाग एकदम टनटना गया। मानो किसी ने गहरी नींद से झकझोर कर उठा दिया हो। पानी की धार में अनायास ही मेरे आँसू निकाल पड़े। मानो इस शावर के बाद अंदर-बाहर दोनों ही तरफ से पूरी तरह से धुल चुका था। शरीर और दिल में पड़ी वो पुरानी परत जैसे पानी में घुल कर बह गयी हो।

कमरे में आकर कपड़ों के अंबार में कपड़े खोजा तो किस्मत से एक साफ जोड़ी मिल गयी। उसे पहन कर मैं बाहर गया और सोफ़े पर जाकर बैठ गया। राजेश भैया भी आ गए थे और रसोई साफ करने में लगे हुए थे।

"चाय लो। और डोसा भी मंगाया है। कुछ सॉलिड खा लो। पता नहीं कब से उल-जलूल खा रहे हो।"

चाय की पहली चुस्की ने मानो मेरे शरीर में जीवन वापस फूँक दिया हो। मैंने कल्पना की तरफ देखा और थोड़ा सा मुस्का दिया। उसने भी सर हिलाया। बगैर शब्दों के मैंने अपने हालत के लिए उससे माफी मांग ली थी और उसने भी जता दिया था की वो समझती है मेरी हालत। चाय और डोसा के बीच हमारी थोड़ी-बहुत बात होने लगी।

"कब तक ऐसे पड़े रहोगे? अकेले एकदम? आइ थिंक यू नीड अ चेंज इन यौर लाइफ।"

मैंने भवें उठाकर उसका असल अर्थ जानना चाहा।

"सुन ब्रो, हम सब परेशान थे तुझे लेकर। तो ये हमारा प्लान था। आज शाम एक मीट-अप है। क्या तो बोलते हैं... हाँ, ह्यूमन लाइब्ररी। यहाँ लोग आते हैं और एक दूसरे से बातें करते हैं। जा, मिलकर देख, शायद तुझे अच्छा लगे।"

“कल्पना यार, मेरा मन नहीं...”

“मैं नहीं सुन रही कुछ भी। तुझे ये करना ही पड़ेगा। और ये कोई वो स्पीड डेटिंग टाइप इवेंट नहीं है। ऐसे ही। लोग बास बातें करते हैं। हम सब बहुत परेशान रहे हैं तुझे लेकर। तुझे ये हमारे लिए करना ही होगा। बस!”

“कब? कहाँ?” हताश होकर मैंने पूछ लिया।

कल्पना मुस्कुराई और इवेंट की सारी जानकारी देने लगी।

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नियत समय पर मैं वहाँ पहुँच गया था। लेकिन मेरी अंदर जाने की इच्छा कतई नहीं थी। भारी कदमों के साथ मैं अंदर घुसा तो देखा एक बड़ा सा हॉल था। कहीं पर कुर्सियाँ लगी हुई थी तो वहाँ पर लोग बैठ कर बातें कर रहे थे। जहां कुर्सियाँ नहीं थी वहाँ खड़े होकर भी बातें कर रहे थे। सबके पास उनके नाम का एक लाल बैज लगा हुआ था। उस हॉल में एक ऊर्जा थी लेकिन शोर नहीं था। घुसने के साथ ही एक टेबल पर आयोजक के लोग बैठे हुए थे। इन्होंने हरे रंग का बैज लगा रखा था। वहाँ पर मैंने अपना नाम बताया तो उन्होंने अपने रजिस्टर में से मेरे नाम के सामने एक टिक लगाया और एक नाम वाला लाल बैज मुझे थमा दिया। मैंने उसके सेफ़्टी पिन के सहारे उसे अपने बाएँ सीने पर लगा लिया और अंदर चला गया।

अंदर एक जगह नींबू पानी की छोटी बोतलें रखी हुई थी। मैंने एक उठा ली और सब लोगो से बचते-बचाते एक खिड़की के पास खड़ा हो गया। कुछ लोगों से नज़रें मिलती तो मैं मुस्कुरा देता। कभी-कभार मैं अंदर नज़रें दौड़ा देता था लेकिन मेरा किसी से सामने से जा कर बात करने का मन बिलकुल भी नहीं था। मैं बार-बार घड़ी देखता की कितना समय बाकी है। नहीं तो बाहर के बगीचे में फूल-पत्ते ही देखता जा रहा था। तभी कहीं से ठंडी हवा का एक झोंका आकर मेरे चेहरे से टकरा जाता है। और एक आवाज़ सुनाई देती है। जैसा हवा के चलने से विंड चाइम्स करती हैं ना, ठीक वैसा।

बाहर मौसम अच्छा है, लेकिन माहौल तो अंदर भी कुछ कम नहीं है, जनाब।"

पीछे से किसी लड़की की आवाज़ सुनने पर मैं चौंक के घूमता हूँ। मैं पलटता हूँ तो देखता हूँ कि एक सुंदर सी लड़की मुझसे ही बात कर रही थी। गेंहूआ रंग, खुले बाल, आँखों पर एनक, कानों में ऑक्सीडाइज्ड सिल्वर के झुमके और नाक पर उसी की एक नथ। जींस पर काला कुर्ता डाला हुआ था उसने, और उस पर हरे रंग का बैज बता रहा था की वो आयोजक मंडली की सदस्या थी। मैं कुछ बोलूँ इससे पहले ही वो आगे बोलती है, “हाय, मैं शायर हूँ।“

लड़खड़ाते शब्दों के साथ मैं उसके बढ़े हुए हाथ से हाथ मिलते हुए कहता हूँ, “मैं... हूँ... आई एम सॉरी, शायर?”

“मेरा नाम है शायर“, उसने मुसकुराते हुए अपने बैज की ओर इशारा करते हुए कहा। उसने आगे कहा, “जानती हूँ थोड़ा सा अलग है।”

“ओह”, सुनकर मेरे चेहरे पर एक औपचारिक मुस्कान आ गयी।

“बड़े देर से देख रही हूँ कि आप एकदम अलग खड़े बस बाहर मौसम को निहारे जा रहे हैं। यकीन मानिये लोग उससे ज़्यादा रोचक होते हैं। आप यहाँ आए हैं तो थोड़ा प्रोसेस का मज़ा लेकर देखिये।“

“वो... मैं...”

मेरे मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। मेरे दिमाग में अभी भी यही चल रहा था कि मैं यहाँ क्यों आ गया और ये कौन है जो ज़बरदस्ती मुझसे बात कर रही है। दस मिनट और रह कर मैं निकल जाने वाला था। लेकिन कुछ एक अजीब सी बात थी शायर में। मैं बात करना चाह नहीं रहा था, लेकिन मेरे अंदर से कुछ था जो चाहता था कि उससे बात करूँ। ऐसा मानो जैसे किसी बांध में पानी का दबाव इतना था कि वो उफ़ान मार कर बहना चाहता था। बांध के गेट ज़बरदस्ती बंद थे, लेकिन पानी भी निकालने को आतुर था।

“वो असल में मैं यहाँ दोस्तों के कहने पर आया हूँ। मुझे कोई इल्म नहीं था ये क्या है। और किसी से क्या बात करूँ इसका कोई आइडिया नहीं था तो बस सोचा कि समय काट लूँ और निकल जाऊंगा।“ बांध से पानी अब रिस रहा था।

वो इस बात पर हँस देती है। “दोस्त अच्छे हैं आपके। कम-से-कम हमारा प्रचार तो कर ही रहे हैं।"

मुझे कुछ सूझा नहीं तो मैंने अपने दाँत निपोर दिये।

“ये बात करना ज़्यादा मुश्किल नहीं है। बस इक्का-दुक्का सवाल पूछिए। बाकी बातें अपना रास्ता खुद-ब-खुद      बना लेंगी। चलिये मेरे साथ ही शुरू कीजिये। कौन हैं आप और क्या करते हैं?”

“मैं? मैं सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूँ। कोड लिखता हूँ।"

वो इस बात पर हँस दी और थोड़ी गहरी आवाज़ में बोली, “वो तो दूसरों के लिए। अपने लिए भी कुछ लिखते हो?”

मैंने हँसा और कहा, “कोशिश अच्छी थी लेकिन नसीर साहब की इतनी खराब मिमिक्री मैंने आज तक नहीं देखी”

हम दोनों इस बात पर हँसने लगते हैं। थोड़ी देर हँसने के बाद थोड़े सहज होते हैं।

“हाँ, किस्से, कहानियाँ और कवितायें लिखता हूँ... था।“

वाह, क्या अनुस्वार अलंकार लगाया है, जनाब। और था का क्या मतलब? अब नहीं लिखते?”

“अब कौन उठे और मेहनत करे कलम उठाने की, फिर से लिखने की...”

“राँझना? भाई दोनों को शायद फ़िल्मी कीड़ा लगा हुआ है“ हम दोनों फिर से हँस पड़ते हैं।

थोड़ी देर तक हँसते हुए दोनों बाहर ही ताकते रहे। फिर उसने कहा, “मगर सही में, कुछ लिखा हुआ हो, तो प्लीज़, सुनाइए ना।“

मैं सोचने लग जाता हूँ कि क्या सुनाया जाए। ये दिमाग भी अजीब चीज़ है। खाली बैठो तो महाकाव्य लिख दे और जब समय आए तो पता नहीं कहाँ गुम हो जाता है।

“अम्म... हाँ, याद आया। वैसा कुछ खास नहीं है, लेकिन पेश-ए-खिदमत है...

चार किरदार कल जीने थे

चार ज़ख्म हैं आज सीने में

कि चार बातें अनकही रह गयी

चार घूंट लाज को पीने में

“वाह साहब, नाम भले ही मेरा हो, लेकिन शायर तो असल में आप ही हैं।"

मैं अपनी तारीफ़ सुनकर थोड़ा सा झेंप जाता हूँ। हम शायद कभी भी खुद को अपनी प्रशंसा के काबिल नहीं समझते। लगता है कि जितना मिल रहा है वो थोड़ा ज़्यादा ही मिल रहा है। शायद प्रेम को लेकर भी हमारा ऐसा ही विचार होता है। जितना मिल रहा है, हक़ से ज़्यादा ही मिल रहा है।

“जब इतना अच्छा लिखते हैं तो लिखना बंद क्यों कर दिया? और कहीं पर इन सब को पब्लिश करवाया है क्या? मैं तो भाई पढ़ना चहुंगी।“

“बिलकुल भी नहीं। बस ट्विटर और इंस्टाग्राम पर कभी-कभी डाल देता हूँ।“

“चलिये... अच्छा है। खुद तक रखने वाली प्रतिभा तो ये है नहीं। अगर बाकी सब कवितायें भी ऐसी ही हैं तो।“

पता नहीं मैं इस तारीफ के लायक हूँ या नहीं, मगर फिर भी शुक्रिया“, मैंने बात मोड़ते हुए पूछा, “आप ये जमघट लगाने वाला काम फुल-टाइम करती हैं?”

“नहीं। ये तो बस ऐसे ही। मुझे तो घूमना पसंद है। अभी यहाँ पर हूँ तो इसमें लग गयी। कल कहीं और।“ शायर ऐसे बात कर रही थी जैसे बोल तो मुझे ही रही थी, लेकिन बातें संसार से कर रही हो। मानो अर्ज़ी डाल रही हो कि जो भी शक्ति दुनिया को चला रही है, उस तक पहुँच जाए बस।“

“आप कहाँ जाना चाहेंगी, अगर आपको मौका मिले तो?”

कहीं भी। हर 6 महीने कोई अलग शहर, अलग लोग, अलग किस्से, और बस यही एक शायर। “

वो बोलती रही। मैं भी बीच-बीच में थोड़ी अपनी बातें अपनी कह देता था। शायर बात करने में बहुत प्रखर थी। एक विषय से दूसरे पर जाना और सब पर गहराई से बात कर पाना, मेरे लिए तो कोई मामूली बात नहीं थी। उसकी बातों से मैं सहज होता गया और उसके वेग में बहते हुए मैं भी बातें करने लगा। मैं इतनी बातें कर सकता हूँ, इस पर मैं खुद अचंभित था। हम कुछ 15-20 मिनट बात किए होंगे कि उसकी टीम वालों ने उसे आवाज़ दी और वो मुझसे आज्ञा लेकर उनके पास चली गयी।

कुछ देर तो मैं उसकी प्रतीक्षा करता रहा। लेकिन जब लगा कि वो काम में विलीन हो चुकी है तो मैंने सोचा कि क्या किया जाए। मैं वापस खिड़की पर खड़े होकर बाहर ताक सकता था। लेकिन मुझे लगा ऐसा करना उचित नहीं। शायर ने इतना सहज कर दिया था तो मैं भी भीड़ की तरफ मुड़ गया। अब जब आ ही गया हूँ और अब थोड़ा सहज भी हूँ तो कुछ लोगों से मिल ही लेता हूँ।

मैं आगे जाकर दो-तीन और लोगों से बात करता हूँ। जिस चीज़ को करने में मुझे काफी संकोच होता था, आज आराम से कर पा रहा था। किसी से बात करना उतना भी मुश्किल नहीं था। शायर ने शायद मेरे अंदर से एक नया आयाम बाहर ला दिया था। और ये करके मुझे भी बहुत अच्छा लग रहा था। लोगों से मिलने की और उन्हें जानने की एक नयी सोच आ गयी थी। जिस आवरण में मैंने खुद को पीछले पाँच महीने में ढक लिया था, मैं धीरे-धीरे उससे बाहर आ रहा था।

तभी कहीं पर घंटी बजती है। मैं आवाज़ ही दिशा की ओर मुड़ता हूँ तो देखता हूँ कि शायर एक माइक पर कुछ बोल रही थी।

“गाइज़, आप सबके आने का बहुत-बहुत शुक्रिया। उम्मीद है कि आपको नए लोगों से मिलकर, उन्हें जान कर अच्छा लगा होगा, कुछ नया जाना होगा, कुछ नया सीखा होगा। हमारा आज का प्रोग्राम यहीं खत्म होता है। अगले प्रोग्राम कि जानकारी आप लोग को ईमेल कर दी जाएगी या आप एप् पर भी देख सकते हैं। आशा करती हूँ कि फिर मिलेंगे। तब तक के लिए, टेक केयर एंड हैव फ़न। बाय।“

मैं जिनसे बात कर रहा था वो और मैं दोनों ने अपनी बात खत्म किया और भीड़ के साथ मैं भी बाहर के रास्ते हो लिया।

दरवाजे पर पहुँचने से पहले किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। देखा तो वो शायर थी। उसने मुझे भीड़ से अलग आने का इशारा किया। मैं उसके पीछे-पीछे वहीं खिड़की के पास चला गया जहां मैं बाहर बगीचे को ताक रहा था।

“सो..., हम कल मिल रहे हैं।“

मुझे समझ नहीं आया कि ये सवाल था या सुझाव था।

मैंने कहा, “ये इवेंट कल भी है क्या?”

“दो लोग बिना इवेंट के भी मिल सकते हैं, शायर साहब। विद्या नगर वाले कॉफी शॉप पर मिलेंगे। मैं लोकेशन भेज दूँगी।“

“ओके”

मैं आगे बढ़ने ही लगा तो पीछे से उसकी आवाज़ आई,

“शायर साहब...”

मैंने पलट कर देखा तो उसने कहा “मेरे लिए कुछ लिख कर लाइएगा तो अच्छा लगेगा।“

मैं हामी में सर हिला देता हूँ।

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अगले दिन मैं कॉफी शॉप पर समय से थोड़ा पहले ही पहुँच जाता हूँ। इस भेंट की औपचारिकता कितनी थी ये पता नहीं था तो एक छोटा सा गुलदस्ता मैंने रास्ते में एक फूल वाले से ले लिया था। मैंने घड़ी देखा तो नियत समय में थोड़ी देरी थी तो एक वहीं से एक अमेरिकानो  कॉफी ले लिया और फोन पर सोशल मीडिया टटोलने लगा। थोड़ी देर बाद दुकान के दरवाजे पर लगी विंड चाइम्स की आवाज़ होती है मैं अपनी नज़रें ऊपर करता हूँ। दरवाजे पर शायर थी। मुझे देखकर वो मुस्कुरा देती है तो जवाब में मैं भी मुस्कुराने लगता हूँ। वो पास आती है तो मैं उड़े गुलदस्ता पकड़ा देता हूँ।

“ओहो...काफी फॉर्मल, शायर साहब!”

“अरे नहीं। वो... मैं... कोई आइडिया नहीं...”

“फॉर्मल अच्छा है, शायर साहब। शुक्रिया।“

“चलिये आपको अच्छा लगा। आप कुछ लेंगी? कुछ बोल दूँ आपके लिए?”

“हाँ, एक मिनट। मैं देखती हूँ क्या है।“

शायर ने एक कोल्ड कॉफी मंगवाया और साथ में एक सैन्विच।

हमारी बातें होने लगी। शायर ने पूछा, “और, हमारे लिए कुछ लिखा आपने?”

मैं निरुत्तर था क्योंकि कुछ लिखा ही नहीं था।

“वो बहुत दिनों से लिखा नहीं था। और कोई बात ऐसे दिमाग में कौंधी नहीं। तो लिख नहीं पाया। और ज़बरदस्ती लिखना मुझसे संभव नहीं होगा।“

“कोई बात नहीं। कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है। फिर कभी। मगर मैं जानती हूँ आप किसी दिन मेरे लिए कुछ लिखेंगे।“

फिर बात किसी और विषय पर घूम गयी। शायर कल की ही तरह काफी अच्छे से बात कर रही थी। मैं भी कल की ही तरह थोड़ा-बहुत अपना बातों बीच में कह देता था। मुलाक़ात अच्छी चल रही थी। हमने करीब डेढ़ घंटे बातें की और फिर एक दूसरे से विदा लिया।

घर पहुंचता ही हूँ की शायर ने अगली मुलाक़ात तय कर उसके जगह और समय की जानकारी मुझे भेज दी। धीरे-धीरे हम नियमित रूप से एक-दूसरे से मिलने लगे। हर मुलाक़ात पर शायर एक अलग जगह चुनती, एक अलग काम चुनती। हमारी कोई भी मुलाक़ात कि तुलना आप किसी पुरानी वाली से नहीं कर सकते थे। और बातें भी वैसी। मानो हर विषय पर उसे महारत हासिल हो। जितनी विदुषी थी, उतनी ही प्रखर भी। कभी भी बोलने में वो पीछे नहीं रहती थी। एकदम बेहिचक और बेझिझक। बस एक बात हमेशा होती थी: वो हर बार पूछती कि मैंने उसके लिया कुछ लिखा कि नहीं। और हर बार मेरी ना पर वो हंस कर कहती कि किसी दिन वो मुझसे ज़रूर लिखवा लेगी।

मुझे उसको लेकर एक आकर्षण तो था, मगर पता नहीं था कि वो प्रेम है की नहीं। शायद उसको भी ऐसा लगता हो। मालूम नहीं। सोचा पूछ कर देखूँ एक बार। मगर शायद उसे वो चीज़ अच्छी नहीं लगती। हम कैसे इस शायद के गिरफ्त में बंध जाते हैं ना! शायद ऐसा होता, शायद वैसा होता। ये शायद शायद हमें भविष्य के घेरे में ऐसा बांधता है कि हम अपने वर्तमान को अनदेखा करने लगते हैं। मानो आधी दुनिया शायद में ही जी रही हो। शायर ऐसी नहीं थी। उसे वर्तमान में ही रहना पसंद था। हाँ, सोचती थी कि कहाँ जाना है, क्या करना है। मगर ये सोच उसके प्रस्तुत कम पर कोई असर नहीं डाल पता था। इन्हीं मुलाकातों के दौरान मैंने पाया कि मैं थोड़ा बदलने लगा हूँ। खुद का ध्यान थोड़ा ज़्यादा रखता था। काम में भी बेहतर होने लगा। ऑफिस में लोग खुश थे। दोस्त भी। कल्पना तो खुद को ही श्रेय देती थी। शायद ये बात सच भी थी।

मैं शायर के साथ अपने साप्ताहिक मुलाक़ात का बेसब्री से इंतज़ार करता था। हम शनिवार को मिलते थे। आज शुक्रवार को ऑफिस खत्म होने के समय मुझे शायर का मैसेज आता है।

“हम कल नहीं मिल रहे। मैं मलेशिया जा रही हूँ।“

मैं इस मैसेज को बस देखता रहा। मुझे पता था कि वो हमेशा के लिए नहीं थी, लेकिन इतनी जल्दी चली जाएगी इस बात का अनुमान भी नहीं था। मैंने फोन लगाने की कोशिश की मगर लगा नहीं। कुछ दिन तो मैं इंतज़ार करता रहा कि शायद मलेशिया से कभी मैसेज कर दे। मगर उधर से सन्नाटे के सिवाय कुछ नहीं आया।

कैसी अजीब बात है ना, कोई अचानक से आता है और अचानक ही चला जाता है। आपको झकझोरकर। मैंने अपनी स्थिति से समझौता कर लिया कि वो अब नहीं आने वाली थी। पहले दिन मुझे लगा था कि शायद मैं वापस उस अंधेरे दौर में चला जाऊंगा। मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। उसके जाने का अफसोस था, मगर दुःख नहीं था। जीवन इस बार सामान्य सी ही चलती रही।

लोग आते हैं, चले जाते हैं। रह जाते हैं बस उनके पद चिन्ह। शायर भी ऐसे ही आई थी और चली गयी। मुझे थोड़ा सा बदल कर ही चली गयी। और छोड़ गयी बस उसकी वही एक बात,

“मेरे लिए कुछ लिख कर लाइएगा तो अच्छा लगेगा।“

उसने इतना कुछ दिया मुझे। शायद नया जीवन ही दे दिया था। और मैं उसकी इस एक बात को भी पूरा ना कर सका। खैर, ज़बरदस्ती लिखना मुझे पसंद नहीं था। और शायद उसे भी ज़बरदस्ती लिखे हुए का छिछलापन समझ आ जाता। शायर जैसी स्त्री के लिए इससे अपमानजनक बात मैं कुछ और नहीं कर सकता है। वो जितनी गहन सोच वाली थी, उसे ऐसे ही कुछ लिखा हुआ शोभा नहीं देता। दुःख तो था कि मैं उसे कुछ दे नहीं पाया, लेकिन खुद से एक वादा भी था कि जब भी लिखूंगा उसके जैसा ही कुछ लिखूंगा: गूढ़, गहरा और आनंदित करने वाला।

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शायर के गए हुए कुछ महीने हो चुके थे। इस बात मुझे थोड़ा अफसोस तो था, मगर दुःख नहीं था। मैं बालकनी में बैठ कर कॉफी पी रहा था तो अचानक कहीं से ठंडी हवा का एक झोंका आता है। हवा के कारण बाजू वाले फ्लैट की विंड चाइम्स आवाज़ करने लगी। मुझे शायर के साथ हुए पहली मुलाक़ात की याद आ गयी। और याद आ गयी उसकी की हुई गुज़ारिश।

“मेरे लिए कुछ लिख कर लाइएगा तो अच्छा लगेगा।“

तब मुझे पता नहीं था कि क्या लिखूँ उसके बारे में। पर अब मैं जानता था की शायर कौन है। वो असल में कौन है। शायर हमारी ज़िंदगी का वो पहलू होता है जो एक कोरी सी ज़िंदगी में रंग उड़ेल देती हो। फिर आप उन रंगों को कैसे सजाते हैं, ये आप पर होता है।

शायर जैसे लोग सबके जीवन में होते हैं। आप जिनको चाहते हो, जिनके साथ रहना चाहते हो, यह जानते हुए कि यह संभव नहीं है। उनका आपके जीवन में होना किसी जुगनू के प्रकाश की भांति होता है। क्षणिक, मगर अंधेरे में रास्ता सुझाने के लिए काफी। उनका आपके जीवन में होना कोई संयोग नहीं, नियति होता है। संसार आपसे यह चाहती है कि आप उनसे मिलो और उनके आँखों से खुद को समझो। नियति का दोष बोलिए या नियति का खेल, शायर का होना बस ही शायद काफी होता है।

उनका आपके जीवन में आना आपको पूरा करता है। किसी अंधेरे कोने से निकाल कर आपको निखारता है। आपको, आपके संभव से मिलाता है। और जुगनुओं की ही तरह आप इनको पकड़ कर नहीं रख सकते। उससे शायद वो आपके पास हो भी, लेकिन फिर वो वो नहीं रहते। इनका आपके जीवन में आना एक खास उद्देश्य से होता है, और फिर जैसे ही उनके किरदार के डायलॉग खत्म हो जाते हैं, वो भी चले जाते हैं।

शायर वो किरदार होते हैं जो शायद कहानी की मुख्य भूमिका में नहीं होते। मगर कहानी उन्हीं से चलती है। हम सब किसी ना किसी कहानी में ये किरदार को निभाते हैं, मगर शायर को इस बात की जानकारी वर्तमान में थी। हम तो बीती बातों पर विचार करते हैं तब ये एहसास होता है, शायर को शायद हमेशा से था। यहाँ उसका रोल खत्म हुआ, और अगले ही पल हो लेती हैं एक्ज़िट। और रह जाता है तो बस कथावाचक की गूंज जो नेपथ्य से इस पूरे कहानी को चलाते रहते हैं। कहाँ पर किसकी एंट्री, कहाँ पर सीन चेंज, और कहाँ समाप्त।

शायर मेरे जीवन में तब आई थी जब नाटक गर्त में जा रही थी। दर्शक पूरी तरह से अपनी दिलचस्पी खो चुके थे। दर्शक क्या, यहाँ तो मुख्य किरदार नाटक को खत्म करना चाहता था। मगर शायर ने आकर कहानी को नया मोड़ दिया, नया आयाम दिया। लाइट और साउंड मानो फिर से काम करने लगे और मानो कथावाचक में भी कहानी को लेकर ऊर्जा आ गयी। शायद कथावाचक को भी इस पात्र की भूमिका की गहनता के बारे में पता ना हो। शायद शायर जैसे किरदार उनको भी अचंभित करते हो। किसे पता?

शायर जैसे लोग आपको हमेशा के लिए नहीं मिलते। वो हमेशा के लिए बनते भी नहीं हैं। बस वो आते हैं, अपना प्रकाश बिखेरते हैं और चले जाते हैं। मानो किसी मृत देह में किसी ने जीवन फूँक दिया हो। वो होता है ना की कभी-कभी पेड़ के कटे हुए तने से भी नई शाखाएँ प्रस्फुटित होने लगती हैं, शायद वैसा ही कुछ इन्सानों में भी होता है। जीवन अपना रास्ता खोज ही लेती है। शायर जैसे लोग बस जीवन को थोड़ा गाइड कर देते हैं।

मैं झट से अंदर गया और नोटबुक और कलम उठा लाया। और फिर लिखता रहा। बिना रुके करीब 3 घंटे लिखता रहा। फिर उसे पढ़ने लगा। पढ़कर लगा कि मैंने शायर को इन पन्नों पर उतार लिया था। वो तो मेरे जीवन में क्षणिक ही थी, मगर उसके एहसास को आज अंततः मैं इन पन्नों पर उतार लिया था। उसको किसी के जीवन से बांधना, कैद करना उचित नहीं था। शायद संभव भी नहीं था। मगर उसके अक्स को उतरना संभव था, शायद आवश्यक भी। शायद किसी और को शायर कि ज़रूरत हो। मैंने सोच लिया कि ये जो लिख रहा था उसे पब्लिश करूंगा। कभी किसी और को अगर जुगनू की रोशनी की दरकार हो, तो शायद उसे ये तब मिल जाए। शायद उसे शायर मिल जाए।

शायर चली तो गयी थी। शायद हमेशा के लिए। पर शायद ऐसे ही वो मेरे जीवन मे, मेरे अंतर में जीवित रहेगी।

----- समाप्त -----

 

ये कहानी प्रेरित है चलचित्र मेरी प्यारी बिन्दु से। इस कहानी के शुरुआत और अंत पर उसका ही प्रभाव है। कुछ सालों से मैं इस कहानी पर विचार कर रहा था, मगर इसका मध्य मुझे नहीं मिल रहा था। वो पात्र जो इसका दूसरा अध्याय गढ़ सकते। वो मिला मुझे मानव कौल के उपन्यास तितली में लिखी शायर ने। मैं शायद अपने पात्र को कोई और नाम दे सकता था। मगर शायर वाले किरदार ने ऐसा घर किया हुआ था कि बिना उसे यहाँ लाये हुए इस कहानी को पूरा करना बेईमानी होता। शायद तितली की शायर इस कहानी के शायर से अलग हो। मगर बिना उसके ना वो कहानी पूरी होती, ना ये।

शायर के नाम, चीयर्स। 

Comments

  1. बहुत ही सुन्दर और लेखनी वाह!

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  2. बहुत सुंदर भाव उकेरे हैं. पढ़कर अच्छा लगा. लिखते रहिएगा.

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