रवानगी
"अरे माँ... रहने दो ना। खाने का सामान मत रखो यार। नहीं ले जा पाउँगा ना। खाना मैं ट्रैन की पैंट्री से ही खा लूंगा। बेकार का बोझ बढ़ेगा और डिब्बा कहाँ रखूँगा फिर?", रजत अपना बैग जमाते हुए माँ से बोला।
"अरे बेटा, मैं जगह बना दूँगी बैग में। तू खा लेना। ये बाहर का तेल-मसाले वाला गन्दा खाना से तो अच्छा ही होगा।", अनामिका शर्मा, रजत की माँ, बोली।
माँ-बेटे की लड़ाई में बीच-बचाव करते हुए शर्मा जी ने अख़बार से नज़रें हटाई और बोले "अच्छा सुनो। लड़का पहली बार जा रहा है। शांति से जाने दो। मन ठंडा रहेगा तो काम कर पायेगा।"
"आप तो ज़्यादा वकील ना बनो घर पे। अपनी वकालत कोर्ट तक ही रखो आप।", पति को बेटे की तरफदारी करते देख अनामिका बोली।
शर्मा जी वापस अपने अख़बार की तरफ मुड़ गए। उनको पता था की ये सब चलता ही रहेगा। अख़बार पढ़ते-पढ़ते ही कुछ देर बाद उन्होंने रजत को बोला, "अरे देख तो लो की ट्रैन सही समय पे है की डिले हो गयी है।"
रजत बैग जमाना छोड़ पलट के पापा के तरफ देखता है। देखा की पापा अभी भी अपने अख़बार में ही लगे हुए हैं। उसने अपने जेब से मोबाइल निकल के उस पर श्रमजीवी एक्सप्रेस के आने का समय देखा। ऐप्प के हिसाब से गाड़ी समय पे थी। मन ही मन उसने सोचा की इसको आज ही ऑन-टाइम होना था। वो शर्मा जी की तरफ मुड़ के बोला की "हाँ पापा, समय पे ही है।" उधर से शर्मा जी का कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो वो वापस बैग जमाने
में लग गया।
"मैंने तो पहले ही कहा था की रात को ही बैग जमा लो।" शर्मा जी ने फिर से तीर छोड़ा। अब रजत झल्ला के बोला के "मुझे सुबह ही करना था। आपको कोई प्रॉब्लम?" शर्मा जी हंस पड़े इस बात पे। "कितनी बार कहा है की गुस्से पे काबू रखो। ऑफिस में कैसे काम करोगे अगर इतने शार्ट-टेम्पर्ड रहे तो?"
"पापा, अब आप पिटा जाओगे हमसे। फिर पता चलेगा की बचपन में कराटे सीखा के आपने गलती कर दी।" रजत ने हंस के बोला।
"भाई, गलती तो हमने २५ साल पहले ही की थी। वही भुगत रहे हैं। उसके बाद से तो प्रायश्चित ही कर रहे हैं।" शर्मा जी ने भी पलट जवाब दिया।
रसोई से मिसेज़ शर्मा ने बोला, "हाँ हाँ... गलती तो मैंने भी की थी। इतना अच्छा रिश्ता आया था मेरे लिए, लेकिन मेरे पल्ले पड़े आप। पता नहीं पापा को क्या दिखा आप में!"
शर्मा परिवार में तो ये नोक-झोंक रोज़ का था। जितना प्यार मिस्टर और मिसेज़ शर्मा को आपस में था, उससे कही ज़्यादा वो अपने बेटे रजत से करते थे। लेकिन आज की ये नोक-झोंक में जितनी ख़ुशी थी, उतनी उदासी भी थी। रजत अपनी पढ़ाई पूरी करके आज घर छोड़ रहा था। दिल्ली में उसकी सरकारी नौकरी जो लग गयी थी।
रजत ने जल्दी में अपना बैग जमाया और चिल्लाया, "मम्मी नाश्ता दे दो। जा रहा हूँ। भूखे ही भेजेगी क्या?"
मिसेज़ शर्मा ने किचन से ही आवाज़ लगाया की, "लगा तो हुआ है टेबल पे।"
रजत ने जल्दी से नाश्ता किया और अपने लगेज के सामान और लैपटॉप बैग लेके आगे बढ़ने लगा।
शर्मा जी बोले, "सब सामान रख लिया?"
" हाँ पापा।"
"सर्टिफिकेट, वगैरह?"
"हाँ, पापा।"
"जोइनिंग लेटर?"
"हाँ, पा...", रजत बोलते-बोलते रुका और अपने कमरे के तरफ भागा। शर्मा जी मुस्कुराते हुए बोले, "मैनेजर साहब, यहाँ है लेटर।"
रजत ने झेंपते हुए आगे बढ़ के पापा के हाथ से लेटर लिया। शर्मा जी बोले, "इतने भी बड़े नहीं हुए हो। बाप की ज़रूरत अभी भी है।"
रजत ने आँख उठा के अपने पापा के तरफ देखा। उनके चेहरे के भाव वो पढ़ नहीं पा रहा था। कहीं पे पहले ही मौके पे इतनी बड़ी सरकारी नौकरी लग जाने का गुरुर दिख रहा था, तो कहीं पे एकलौते बेटे को खुद से अलग करने का दुःख।
इन सब के बीच मिसेज़ शर्मा ने बेटे को दही-चीनी चखाया और माथा पे चूमा।
दो रिक्शा घर पे आये, एक पे अस्ताचल को अग्रसर अधेड़ दंपत्ति, और दुसरे पे उदयाचल बेटा अपने सामान के साथ चल पड़े स्टेशन की और।
३ नंबर प्लेटफार्म पे गाड़ी खड़ी थी। तीनों ट्रैन के पास पहुंचे; ए.सी.२ की बोगी में अपने सीट पे सामान रख के रजत वापस गेट पे आया और माँ-बाप से बात करने लगा।
"आप रो मत मम्मी। हर चौथे महीने ट्रैन पकड़ के वापस आ जाऊंगा आपके पास।" मिसेज़ शर्मा मुस्कुरा पड़ी और बेटे को गले से लगा लिया।
मिस्टर शर्मा के होंठो पे भी हल्की मुस्कान आ गयी। उन्हें पता था की एक बार नौकरी का चक्कर पड़ गया तो कहाँ ये सब संभव होता है। कोई-ना-कोई इमरजेंसी वाला काम रहेगा ही। बेटा साल में एक बार भी घर आ गया तो काफी है।
यही सब बात चल रही थी। माँ-बेटे के लाड़ भरी बातों के बीच, मिस्टर शर्मा अपने नसीहत के तीर छोड़ते जा रहे थे बीच-बीच में। इतने में ट्रैन ने सीटी दे दी। गाड़ी धीरे-धीरे लोहे की पटरी पर चलने लगी। "बाय मम्मी, बाय पापा" बोलके रजत गाड़ी के दरवाज़े पे टिक के हाथ हिलाता रहा जब तक वो दोनों नज़रों से ओझल ना हो गए।
"चलिए भाग्यवान। अब बस हम दोनों को एक-दुसरे का ही सहारा है।" ट्रैन ने जब स्टेशन तो पूरी तरह से छोड़ दिया तब मिस्टर शर्मा बोले। स्टेशन के रिक्शा स्टैंड पे जा कर उन्होंने रिक्शा वाले को घर का पता दे के पूछा, "चलोगे?" रिक्शा वाले ने बोला, "५० रुपया लगेगा साहब।" मिस्टर शर्मा जानते थे की ये भाड़ा १० रुपया ज़्यादा ही ले रहा है, लेकिन उन्होंने फिर भी हामी भर दी की चलो। आज पता नहीं क्यों मोल-भाव करने का उनका मन नहीं किया।
इधर रजत आ के अपने बर्थ पर बैठा और मोबाइल निकाल के फेसबुक पे अपडेट करने लगा। "ट्रैवेलिंग फ्रॉम पटना टू दिल्ली। फीलिंग एक्ससिटेड। न्यू एडवेंचर अवेट्स।" इधर अपडेट किया, और उधर से दोस्तों ने लाइक करना शुरू किया। रजत ऐसे ही अब फेसबुक पे अपने दाहिने अंगूठे से सब पोस्ट को ऊपर करने लगा। अचानक उसे मोबाइल कुछ धुँधला दिखना शुरू हुआ। लाइक्स के बौछार के त्वरित सुख के बीच उसके दिल में अब इस बात का एहसास होने लगा की वो घर से दूर जा रहा है। शहर से दूर जा रहा है। अपने माँ-बाप से दूर जा रहा है।
वादा तो किया था हर चौथे महीने आने का लेकिन क्या वो कर पायेगा ये सोचने लगा। फिर उसने संकल्प लिया की नहीं वो किसी भी कीमत पे घर आएगा। और नियमित रूप से आता रहेगा। इसी उधेड़बुन में खोया-खोया वो खिड़की के बहार अपने शहर को पीछे छूटते हुए देखने लगा।
उधर रिक्शा पर बैठे मिसेज़ शर्मा अपने पल्लू के कोने से आखों से बहते हुए अश्रुधारा को रोकने की विफल कोशिश कर रही थी। और मिस्टर शर्मा शून्य में देख रहे थे। उनके चेहरे के भाव अभी भी उनके अंदर चलते हुए विचारों के बवंडर को सामने नहीं आने दे रहे थे।
घर छूट रहा है। गाँव छूट रहे हैं। कस्बे छूट रहे हैं। शहर छूट रहे हैं। कभी-कभी तो देश भी छूट रहे हैं। लोग छूट रहे हैं। माँ-बाप छूट रहे हैं। और मिल क्या रहा है? किसी को नहीं पता। सब दौड़ रहे हैं। एक बेहतर कल के पीछे। पता नहीं वो बेहतर कल है भी या नहीं। लेकिन सब दौड़ रहे हैं। इस दौड़ में आज रजत भी शामिल हो गया है। इस दौड़ में आस-पास क्या चल रहा इसकी तस्वीर भी धुंधली है। दीखता ही नहीं की साथ में क्या था जो छोड़ दिया। अब ये तो लाज़िमी है की तेज़ रफ़्तार में आस-पास की तस्वीर धुंधली हो ही जाती है।
कभी-कभी लगता है क्यों दौड़ना इतना? थोड़ा ठहरो। सांस लो। अपने आस-पास देखो। जीवन का आनंद लो। दौड़ते हुए तो सांस नहीं ले सकते, आनंद क्या खाक लोगे। इस रोज़मर्रा की रेस में थोड़ा धीरे चल के देखो। शायद तस्वीर फिर साफ़ दिखने लगे।
*ये कहानी प्रेरित है मेरे जीवन के कुछ अंश से और नीलेश मिश्रा जी के 'स्लो इंटरव्यू' से। ये मेरी तरफ से उनके इस साहसिक पहल को छोटी से अंजलि।
"अरे बेटा, मैं जगह बना दूँगी बैग में। तू खा लेना। ये बाहर का तेल-मसाले वाला गन्दा खाना से तो अच्छा ही होगा।", अनामिका शर्मा, रजत की माँ, बोली।
माँ-बेटे की लड़ाई में बीच-बचाव करते हुए शर्मा जी ने अख़बार से नज़रें हटाई और बोले "अच्छा सुनो। लड़का पहली बार जा रहा है। शांति से जाने दो। मन ठंडा रहेगा तो काम कर पायेगा।"
"आप तो ज़्यादा वकील ना बनो घर पे। अपनी वकालत कोर्ट तक ही रखो आप।", पति को बेटे की तरफदारी करते देख अनामिका बोली।
शर्मा जी वापस अपने अख़बार की तरफ मुड़ गए। उनको पता था की ये सब चलता ही रहेगा। अख़बार पढ़ते-पढ़ते ही कुछ देर बाद उन्होंने रजत को बोला, "अरे देख तो लो की ट्रैन सही समय पे है की डिले हो गयी है।"
रजत बैग जमाना छोड़ पलट के पापा के तरफ देखता है। देखा की पापा अभी भी अपने अख़बार में ही लगे हुए हैं। उसने अपने जेब से मोबाइल निकल के उस पर श्रमजीवी एक्सप्रेस के आने का समय देखा। ऐप्प के हिसाब से गाड़ी समय पे थी। मन ही मन उसने सोचा की इसको आज ही ऑन-टाइम होना था। वो शर्मा जी की तरफ मुड़ के बोला की "हाँ पापा, समय पे ही है।" उधर से शर्मा जी का कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो वो वापस बैग जमाने
में लग गया।
"मैंने तो पहले ही कहा था की रात को ही बैग जमा लो।" शर्मा जी ने फिर से तीर छोड़ा। अब रजत झल्ला के बोला के "मुझे सुबह ही करना था। आपको कोई प्रॉब्लम?" शर्मा जी हंस पड़े इस बात पे। "कितनी बार कहा है की गुस्से पे काबू रखो। ऑफिस में कैसे काम करोगे अगर इतने शार्ट-टेम्पर्ड रहे तो?"
"पापा, अब आप पिटा जाओगे हमसे। फिर पता चलेगा की बचपन में कराटे सीखा के आपने गलती कर दी।" रजत ने हंस के बोला।
"भाई, गलती तो हमने २५ साल पहले ही की थी। वही भुगत रहे हैं। उसके बाद से तो प्रायश्चित ही कर रहे हैं।" शर्मा जी ने भी पलट जवाब दिया।
रसोई से मिसेज़ शर्मा ने बोला, "हाँ हाँ... गलती तो मैंने भी की थी। इतना अच्छा रिश्ता आया था मेरे लिए, लेकिन मेरे पल्ले पड़े आप। पता नहीं पापा को क्या दिखा आप में!"
शर्मा परिवार में तो ये नोक-झोंक रोज़ का था। जितना प्यार मिस्टर और मिसेज़ शर्मा को आपस में था, उससे कही ज़्यादा वो अपने बेटे रजत से करते थे। लेकिन आज की ये नोक-झोंक में जितनी ख़ुशी थी, उतनी उदासी भी थी। रजत अपनी पढ़ाई पूरी करके आज घर छोड़ रहा था। दिल्ली में उसकी सरकारी नौकरी जो लग गयी थी।
रजत ने जल्दी में अपना बैग जमाया और चिल्लाया, "मम्मी नाश्ता दे दो। जा रहा हूँ। भूखे ही भेजेगी क्या?"
मिसेज़ शर्मा ने किचन से ही आवाज़ लगाया की, "लगा तो हुआ है टेबल पे।"
रजत ने जल्दी से नाश्ता किया और अपने लगेज के सामान और लैपटॉप बैग लेके आगे बढ़ने लगा।
शर्मा जी बोले, "सब सामान रख लिया?"
" हाँ पापा।"
"सर्टिफिकेट, वगैरह?"
"हाँ, पापा।"
"जोइनिंग लेटर?"
"हाँ, पा...", रजत बोलते-बोलते रुका और अपने कमरे के तरफ भागा। शर्मा जी मुस्कुराते हुए बोले, "मैनेजर साहब, यहाँ है लेटर।"
रजत ने झेंपते हुए आगे बढ़ के पापा के हाथ से लेटर लिया। शर्मा जी बोले, "इतने भी बड़े नहीं हुए हो। बाप की ज़रूरत अभी भी है।"
रजत ने आँख उठा के अपने पापा के तरफ देखा। उनके चेहरे के भाव वो पढ़ नहीं पा रहा था। कहीं पे पहले ही मौके पे इतनी बड़ी सरकारी नौकरी लग जाने का गुरुर दिख रहा था, तो कहीं पे एकलौते बेटे को खुद से अलग करने का दुःख।
इन सब के बीच मिसेज़ शर्मा ने बेटे को दही-चीनी चखाया और माथा पे चूमा।
दो रिक्शा घर पे आये, एक पे अस्ताचल को अग्रसर अधेड़ दंपत्ति, और दुसरे पे उदयाचल बेटा अपने सामान के साथ चल पड़े स्टेशन की और।
३ नंबर प्लेटफार्म पे गाड़ी खड़ी थी। तीनों ट्रैन के पास पहुंचे; ए.सी.२ की बोगी में अपने सीट पे सामान रख के रजत वापस गेट पे आया और माँ-बाप से बात करने लगा।
"आप रो मत मम्मी। हर चौथे महीने ट्रैन पकड़ के वापस आ जाऊंगा आपके पास।" मिसेज़ शर्मा मुस्कुरा पड़ी और बेटे को गले से लगा लिया।
मिस्टर शर्मा के होंठो पे भी हल्की मुस्कान आ गयी। उन्हें पता था की एक बार नौकरी का चक्कर पड़ गया तो कहाँ ये सब संभव होता है। कोई-ना-कोई इमरजेंसी वाला काम रहेगा ही। बेटा साल में एक बार भी घर आ गया तो काफी है।
यही सब बात चल रही थी। माँ-बेटे के लाड़ भरी बातों के बीच, मिस्टर शर्मा अपने नसीहत के तीर छोड़ते जा रहे थे बीच-बीच में। इतने में ट्रैन ने सीटी दे दी। गाड़ी धीरे-धीरे लोहे की पटरी पर चलने लगी। "बाय मम्मी, बाय पापा" बोलके रजत गाड़ी के दरवाज़े पे टिक के हाथ हिलाता रहा जब तक वो दोनों नज़रों से ओझल ना हो गए।
"चलिए भाग्यवान। अब बस हम दोनों को एक-दुसरे का ही सहारा है।" ट्रैन ने जब स्टेशन तो पूरी तरह से छोड़ दिया तब मिस्टर शर्मा बोले। स्टेशन के रिक्शा स्टैंड पे जा कर उन्होंने रिक्शा वाले को घर का पता दे के पूछा, "चलोगे?" रिक्शा वाले ने बोला, "५० रुपया लगेगा साहब।" मिस्टर शर्मा जानते थे की ये भाड़ा १० रुपया ज़्यादा ही ले रहा है, लेकिन उन्होंने फिर भी हामी भर दी की चलो। आज पता नहीं क्यों मोल-भाव करने का उनका मन नहीं किया।
इधर रजत आ के अपने बर्थ पर बैठा और मोबाइल निकाल के फेसबुक पे अपडेट करने लगा। "ट्रैवेलिंग फ्रॉम पटना टू दिल्ली। फीलिंग एक्ससिटेड। न्यू एडवेंचर अवेट्स।" इधर अपडेट किया, और उधर से दोस्तों ने लाइक करना शुरू किया। रजत ऐसे ही अब फेसबुक पे अपने दाहिने अंगूठे से सब पोस्ट को ऊपर करने लगा। अचानक उसे मोबाइल कुछ धुँधला दिखना शुरू हुआ। लाइक्स के बौछार के त्वरित सुख के बीच उसके दिल में अब इस बात का एहसास होने लगा की वो घर से दूर जा रहा है। शहर से दूर जा रहा है। अपने माँ-बाप से दूर जा रहा है।
वादा तो किया था हर चौथे महीने आने का लेकिन क्या वो कर पायेगा ये सोचने लगा। फिर उसने संकल्प लिया की नहीं वो किसी भी कीमत पे घर आएगा। और नियमित रूप से आता रहेगा। इसी उधेड़बुन में खोया-खोया वो खिड़की के बहार अपने शहर को पीछे छूटते हुए देखने लगा।
उधर रिक्शा पर बैठे मिसेज़ शर्मा अपने पल्लू के कोने से आखों से बहते हुए अश्रुधारा को रोकने की विफल कोशिश कर रही थी। और मिस्टर शर्मा शून्य में देख रहे थे। उनके चेहरे के भाव अभी भी उनके अंदर चलते हुए विचारों के बवंडर को सामने नहीं आने दे रहे थे।
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घर छूट रहा है। गाँव छूट रहे हैं। कस्बे छूट रहे हैं। शहर छूट रहे हैं। कभी-कभी तो देश भी छूट रहे हैं। लोग छूट रहे हैं। माँ-बाप छूट रहे हैं। और मिल क्या रहा है? किसी को नहीं पता। सब दौड़ रहे हैं। एक बेहतर कल के पीछे। पता नहीं वो बेहतर कल है भी या नहीं। लेकिन सब दौड़ रहे हैं। इस दौड़ में आज रजत भी शामिल हो गया है। इस दौड़ में आस-पास क्या चल रहा इसकी तस्वीर भी धुंधली है। दीखता ही नहीं की साथ में क्या था जो छोड़ दिया। अब ये तो लाज़िमी है की तेज़ रफ़्तार में आस-पास की तस्वीर धुंधली हो ही जाती है।
कभी-कभी लगता है क्यों दौड़ना इतना? थोड़ा ठहरो। सांस लो। अपने आस-पास देखो। जीवन का आनंद लो। दौड़ते हुए तो सांस नहीं ले सकते, आनंद क्या खाक लोगे। इस रोज़मर्रा की रेस में थोड़ा धीरे चल के देखो। शायद तस्वीर फिर साफ़ दिखने लगे।
*ये कहानी प्रेरित है मेरे जीवन के कुछ अंश से और नीलेश मिश्रा जी के 'स्लो इंटरव्यू' से। ये मेरी तरफ से उनके इस साहसिक पहल को छोटी से अंजलि।
Bahut khoob! :)
ReplyDeleteThank you :)
DeleteAansu laa diye bhai. Har bhar ghar chorne ke time abhi bhi aansu daba ke hi ghar se nikal jaya krte hain. Piche mud k nahi dekhte. Koshish krte hain. Lekin mud jaate hain. Maa papa dikhte h balcony mein, ek wry smile liye! :'(
ReplyDeleteThanks bawa. C'est la vie.
Deleteबहुत खूब ❤️❤️
ReplyDeleteThanks Ankita <3
DeleteBhot khoob bhai ♥️♥️
ReplyDeleteThanks Akku
Deleteरूला दिया यार। बहुत खूबसूरत लिखा है।
ReplyDeleteनीलेश मिसरा जी की तरह लिखना शुरू कर दिए हो......मन को छू गई ....बहुत ही साधारण शब्दो मे....Please keep writing such simple stories
ReplyDeleteThaks Pandey Ji. :P
DeleteBht khoob. Enjoyed reading this. Keep writing
ReplyDelete-Yusuf
Bohot bohot shukriya Yusuf samay nikal ke padhne ke liye.
DeleteThis is so relatable and so much like Nilesh Mishra.. Nice one Dada.. 😇
ReplyDeleteBohot bohot thanks. Naam bhi likh dete to personally shukriya ada bhi kar deta.
ReplyDeleteYou made me so emotional.....itna badhiya itna badhiya....dil ko chhoo liya. Ye kahani hum sabki hai. Would love to read more such stories . Keep writing
ReplyDeleteThanks for the sweet words. Whoever you are, I promise you that I will keep on writing these stories.
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