गोधूलि बेला
“ये लो। वैसे मैं इससे अच्छा बना लेता हूँ” कहकर
रजत सुधा को भेल-पूरी का एक दोना पकड़ा देता है।
“तूने खाया भी नहीं और अपने एक्सपेर्ट कमेंट दे
दिये?”
“नहीं, जब
वो बना रहा था तो थोड़ा सा ले लिया था”
“अच्छा,
लेकिन मुझे कैसे पता होगा? तूने
कभी कुछ बना के खिलाया ही नहीं। खाली बोलता रहा कि बना के खिलाऊंगा” सुधा ने
शिकायत करते हुए कहा।
“ना कभी मौका ही था,
ना दस्तूर” रजत ने अपनी ओर सफ़ाई दी और फिर कहा,
“जानती हो, मैंने कभी सोचा नहीं था कि तुम्हें
साड़ी में देखूंगा। यू नो, ऐसे
नोर्मली, ऐसे खुले में विचरण करते हुए”
“हाँ,
मैंने भी नहीं सोचा था... लेकिन यही जीवन है। और कोई ऐसे खुले में नहीं घूम रही
हूँ मैं। सीधे एक फंक्शन से आ रही हूँ। कि साहब आए हैं ,
थोड़ा मिल लूँ। बड़े लोगों के सानिध्य में रहने से फ़ायदा ही होता है,
ऐसे बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं।” सुधा अपने पास रेत को साफ़ करके रजत को बैठने का इशारा
करती है।
“‘बड़े-बुजुर्ग’?
मुहतरमा थोड़ी सी शरम कर लीजिये। आप खुद बड़े और बुजुर्ग दोनों वर्गों की प्रीमियम
सदस्या बन चुकी हैं” कहकर रजत अपने चप्पल को बाजू में रखकर सुधा के बाएँ तरफ़ बैठ
जाता है।
“जी नहीं। और वैसे भी तुझसे छोटी ही हूँ ना। तो
मैं आजीवन जवान ही रहूँगी। बड़े-बुजुर्ग वाले काम तुम्हें ही मुबारक”
अपने जीवन के पाँचवें दशक की देहरी पर खड़ी सुधा
आज भी साड़ी पहनने में थोड़ा अजीब महसूस करती थी। लेकिन जब औपचारिक समारोह हो तो
समाज के नियम कहते हैं कि ऐसी वेश-भूषा धारण की जाए। तब ही निकाली जाती हैं अलमारी
में से ये कुछ हज़ार वाली साड़ियाँ। उसे ये सब करना कुछ खासा पसंद नहीं था क्योंकि उसे पता था की लोग
आकार पूछेंगे की कहाँ से लिया,
कितने में लिया, वगैरह-वगैरह। उसे इन ‘बेफिजूल’
की बातों से सख्त चिढ़ थी। उसके ऊपर फिर रंग मिलाकर गहने पहनने का बोझ अलग। लेकिन
जब जीवनसाथी की पदोन्नति दाँव पर हो तो ये फ़ैन्सी-ड्रेस प्रतियोगिता में प्रतिभागी
बनना ही पड़ता है। उसके उलट रजत सामान्य सी सफ़ेद कमीज़ और काले पतलून के साथ चमड़े की
चप्पल में ही सुधा से मिलने आ गया था।
दोनों भेल-पूरी फाँकते हुए चुप-चाप सूरज को ढलते
हुए देखने लगते हैं। जैसे-जैसे सूरज क्षितिज की ओर अपने कदम बढ़ा रहा था,
आसमान मानो रंगों से उन्मादित होता जा रहा था। नारंगी,
लाल, हरी सब रंगों की छटा नीले आसमान के पट पर
मानो नाच रही हो।
“अजीब है ना,
आसमान ऐसा रंगीन दोपहर में नहीं होता जब सूरज अपने शीर्ष पर होता है। लेकिन एकदम
भोर और इस वक़्त शाम होने से पहले...”
“गोधूलि बेला”
“क्या?”
“गोधूलि बेला कहते हैं इसे... शाम ढलने से एकदम
पहले के समय को”
“ओह... हाँ तो भोर और गोधूलि बेला के समय
कैसे रंगों से सराबोर हो जाता है एकदम से”,
गोधूलि बेला पर थोड़ा ज़ोर देकर सुधा बोलती है। “मानो जब तक साथ हैं,
तब तक हमारे औचित्य की कोई सुध नहीं लेता,
लेकिन आने वक़्त और जाने वक़्त, सब
कैसे हमारी वैल्यू करने लगते हैं”
“हाँ” रजत मुस्कुरा कर कहता है। “शायद इसीलिए ये
जो हम लोग सालों बाद मिलते हैं, वो
पल एकदम याद रहते हैं। अगर हर समय साथ होते तो शायद...” रजत बात को बीच में ही छोड़
देता है।
सुधा रजत के तरफ पलट कर देखती है। चेहरे पर पड़
रही बालों की एक लट को कान के पीछे खोंस कर देखते रहती है। सोचती है की दोनों को
एक-दूसरे को जानते हुए लगभग तीस साल हो चुके थे। लेकिन फिर भी रजत अनायास ही ऐसी
बातें कर देता था जैसे अभी भी दोनों अपने रिश्ते के पहले पायदान पर ही थे। रजत
एकटक सूरज को क्षितिज में विलीन होते हुए देखता रहता है।
सुधा की तरफ बिना मुड़े ही वो कहता है,
“कैसा
रहा तेरा वो प्रोग्राम?”
“तू तो जनता ही है… वही
पुराना ढोंग। सब को जाकर नमस्ते करो, झूठी
मुस्कान दिखाओ, और जब कोई वो बैंक के
जीएम-सीजीएम लोग बात करें तो ऐसा दिखाओ जैसे उन बातों में तुम्हें बहुत रुचि हो”
रजत एक छोटी हँसी हँस कर हामी भर देता है। वह
बड़े लोगों की बड़ी महफिलों के इन चोंचलों से अच्छी तरह से अवगत था। अवगत क्या था...
वह खुद इन चोंचलों में शामिल होने के पथ पर बहुत सालों पहले अग्रसर था। और ऐसा
नहीं है की आज उसे होना नहीं पड़ता,
लेकिन जब आप समाज के इस झूठे दंभ वाले खेल पर से अपनी निर्भरता हटा लेते हैं तो
फिर आपकी पंखों को आकाश में उड़ने पर थोड़ा ज़्यादा बल मिल जाता है।
“सौरव कहाँ है?
अभी भी वहीं है?”
“हाँ, उसको
तो होना पड़ेगा। उसका तो अगले साल प्रोमोशन आ रहा है। तो वो सब में थोड़ा रहना
पड़ेगा। काम तो अच्छा ही किया है उसने अपने पूरे कैरियर में। खासकर पीछले चार साल
में तो काफ़ी ग्रोथ किया है अपने डिपार्टमेंट का। लेकिन बैंक में सब अपना जैक लगा
के रखते हैं। वहाँ पर ये सब में ना दिखो तो लोगों के इनर-सर्कल से बाहर चले जाते
हैं”
“अच्छा है। हो जाएगा उसका प्रमोशन। जीएम का रैंक
होना है ना उसका अगले साल?”
“हाँ”
“बड़े लोग!” बोलकर रजत हँस देता है।
“क्या ‘बड़े
लोग’! बस रूखी-सूखी खा कर थोड़ा बहुत गुज़र-बसर कर
लेते हैं” सुधा भी इस बात पर चुहल कर लेती है।
दोनों हल्की सी हंसी
हंस देते हैं। रजत का ध्यान वापस सूर्य और क्षितिज के आलिंगन की ओर मुड़ जाता है।
आसमान में भी थोड़ा सा अंधेरा अब छाने लगता है। मानो आसमान को भी
इस प्रेम मिलन को देखकर लाज आ रहा हो और वह इन दोनों को एकांत देने के लिए अपनी
आँखें मूँद रहा हो।
वहीं सुधा का मन बिलकुल गौरैये जैसे एक खयाल से
दूसरे खयाल पर कूद रहा हो। वह दस-बीस क्षण सूरज को देखने के बाद अपने आस-पास के
जन-सैलाब को देखने लगती है। दायें हाथ पर एक कतार में खोमचे और रेहड़ी वाले मूँगफली,
भेल-पूरी, झाल-मुड़ी,
बंटा-सोडा, और मोमो बेच रहे थे। बाएँ हाथ
के सीध में एक परिवार जीवन के रोज़मर्रा के दौड़ से दूर एक-दूसरे के साथ का आनंद ले
रहे थे। वहाँ पर पति-पत्नी भेल-पूरी खाते हुए आपस में बातें कर रहे थे। उनका बड़ा
बेटा जो शायद आठ साल का होगा वह रेत के कीले बना रहा था और छोटा बेटा दोनों के चारों
और दौड़ते जा रहा था जैसे चंद्रमा पृथ्वी के चक्कर लगाते रहता है। ऐसा लग रहा था मानो
जैसे छोटा परिवार-सुखी परिवार के आदर्श उदाहरण हों।
सुधा को पता था ये की ऐसे साथ में होना हर रोज़
की बात नहीं हो सकती है। इतने महंगे शहर में साँस लेने की भी कीमत चुकानी पड़ती है।
और केवल एक इंसान के वेतन पर वह संभव नहीं था। शायद था... वह क्यों ही खुद से झूठ
बोले। लेकिन जैसे-जैसे आप जीवन में आगे बढ़ते जाते हो,
वैसे-वैसे आप ज़्यादा सुख-सुविधा चाहते हो। धीरे-धीरे वह भी शहर के अनगिनत लोगों की
तरह इस भंवर में फंस चुकी थी। ऐसा नहीं था कि उसका मन नहीं किया की सब कुछ छोड़ कर
वापस अपने घर चली जाए, उस दो कमरे के सरकारी
मकान में जहाँ उसके पापा ने पाँच लोगों को आराम से पाला था। लेकिन सच उसको पता था।
तब शायद ऐसी रोज़ की फ़िक्र नहीं थी उसे,
लेकिन बारिश में रिसते छत उसे अभी भी याद है। आज भागा-दौड़ी शायद ज़्यादा है,
लेकिन कैसे उसके पापा ने कर्ज़ा ले कर उसे और उसकी बहनों को पढ़ाया था वह अभी भी याद
है।
कभी-कभी लगता है कि पुराने दिन इतने भी बुरे
नहीं थे। लेकिन जब साधन की स्वल्पता आपकी इच्छाओं और आकांक्षाओं को जकड़ लेती है,
उस वक़्त अपने हीन होने का जो भाव होता है,
उसके सामने सब समझौते सही लगते हैं। अभी भी जब वह अपने शहर जाती है तो उसके
भतीजे-भतीजियाँ उसके आगे-पीछे लगे रहते हैं। और हो भी क्यों ना... बालक मन को क्या
चाहिए? दो मीठे बोल और थोड़ी सी भेंट।
सुधा इसमें कभी भी कमी नहीं रखती थी। सब के लिए सोच कर,
उनके ज़रूरत और चाह अनुसार भेंट करती थी। घर के बाकी लोगों से भी प्रेम और आदर से
ही बर्ताव करती थी। वहाँ के साधनों की सीमा भी समझती थी। तो रसोई में या कोई और
काम में बिना किसी संकोच के हाथ बंटा देती थी। लेकिन वह ये सब केवल तीन-चार दिन ही
कर पाती थी।
इतने दिन में घर में शांति और खुशहाली की प्लास्टिक
पेंट की जो परत आज के भंगुर रिश्तों पर लगी हुई थी वह चटकने लगती थी और क्लेश की
दरारें धीरे-धीरे सामने आने लगती थी। खैर,
घर में तनाव कहाँ नहीं होता! बर्तन साथ रहेंगे तो आवाज़ तो करेंगे ही। लेकिन उसको
इस ‘मधुर-ध्वनि’
को सुनने, और खासकर इस आहुति में अपने
हिस्से का घी डालने का कोई शौक नहीं था। इसीलिए चार दिन में ही इस ना सोने वाले
शहर में वापस आ जाती थी और फिर उसी अंतहीन दौड़ में दोनों मियां-बीवी लग जाते थे।
अपने ख़यालों के तंतुओं में उलझी सुधा रजत के
आवाज़ से चौंक जाती है। “ये लो” कहकर रजत सुधा को इस बार डाब पकड़ाता है।
“ओह” सुधा
का ध्यान अपने अतीत और वर्तमान के ऊहापोह से बाहर आता है। अपने ख़यालों में गुम
सुधा को पता ही नहीं चला की कब शाम हो गयी थी और चाँद किसी स्पॉटलाइट की तरह मानो उस
पूरे तट पर अपनी रोशनी फेंक रहा था।
“ग्लिच इन द मेट्रिक्स!” कहकर सुधा उससे नारियल
ले लेती है।
“क्या?”
“अरे, अभी
कुछ देर पहले तुम बिल्कुल ऐसे ही मूँगफली लाये थे। तो वही... ‘ग्लिच
इन द मेट्रिक्स’!”
“हम्म...”
“और तुम उठे कब?”
स्ट्रॉ से नारियल पानी के घूंट लेते हुए सुधा पूछती है।
“अपना जादू ही कुछ ऐसा है मैडम... आने-जाने
का पता ना चले, बस जब तक हूँ,
तब तक बस मैं ही हूँ”
“हाँ, पैर
तो तुम्हारे कभी किसी ठौर ठहरे ही नहीं”
“हाँ, कोई
काम मुझे आज तक बांध नहीं पाया है!”
“सच में यार। लेकिन तुम्हें सच में कभी कहीं पर,
किसी के साथ बंधने का मन नहीं हुआ?”
“अब क्या बताए यार... अपन तो खुले आसमान में
उड़ने वाले पंछी हैं”
“हाँ, तो
उनको भी तो कभी ना कभी कोई बसेरा चाहिए होता है। चील भी अपना घोंसला बनाते ही हैं”
रजत पलट कर सुधा के तरफ़ देखने लगता है। चाँद की
रोशनी में उसके आँखों की पुतलियाँ, और
गाल और होंठ के उरुज चमक रहे थे। सुधा अपनी भंवें उठाती है जैसी पूछ रही हो कि है
कोई उत्तर मेरे प्रश्न का। रजत थोड़ी देर में मुस्कुरा कर अपनी नज़रें फेर लेता है।
“जिनके लिए ये दुनिया ही घर हो,
वो क्या ही 2-बीएचके में खुश रहेंगे? और तुम तो जानती ही हो रोमा… डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है”
“वाह, इससे
गंदा जोक तुमने शायद ही कभी मेरे सामने मारा है”
सुधा व्यंग्य में धीरे-धीरे ताली मारने लगती है।
“तुम्हारा खत्म हो गया?”
“क्या,
सवालों की लड़ी? ना,
अभी तो पूरा इंटरव्यू लूँगी तुम्हारा”
“नहीं मेरी माँ। डाब का पानी पूरा गटक ली हो तो
लाओ दो, फेंक के आता हूँ”
“नेकी और पूछ-पूछ... ये लो। लेकिन सवाल मेरे खत्म
नहीं हुए हैं अभी तक”
“जानता हूँ। तीस साल से खत्म नहीं हुए”
रजत दोनों नारियल के साथ भेल-पूरी के दोने लेकर
उठता है और नारियल वाले के पास के कूड़ेदान में रखकर वापस आता है। लौटते हुए उसके
कदम थोड़े धीरे हो गए थे। मानो की उसके पैर भी उसके मन का भार उठा रहे थे। चलते हुए
उसका मन उस ऊहापोह में फंस गया था जिसको वह कोई ना कोई प्रयोजन से टालता रहता था।
कभी-कभी समस्याओं से जूझने से बेहतर है कि उनसे किनारा कर लिया जाए। समय,
मनोवेदना, और जीवन और हृदय में जो
विदारण की स्थिति होती है उससे बचे रहना भी कभी-कभी सही होता है। ज़रूरी नहीं की हर
समर लड़ा ही जाए। परिपक्वता कभी-कभी आत्मसंरक्षण में भी फलीभूत होती है। और जब
भगवान कृष्ण खुद रण से भाग सकते हैं, तो
इतनी ढील की इजाज़त तो सामान्य लोगों को भी होनी ही चाहिए। रजत वापस आकर अपने जगह
बैठ जाता है।
“बोलेगा?”
सुधा वापस उससे पूछती है।
रजत जवाब में मुंह बिचका देता है।
“अच्छा छोड़,
इधर आ। एक सेल्फ़ी ले लेते हैं”
सुधा अपना मोबाइल निकाल कर फोटो लेने लगती है।
कैमरा में देखती है की रजत खुल कर मुस्कुरा नहीं रहा था तो उसके पसलियों पर हल्के
से कोहनी मार देती है। रजत चोट के अनुपात से कहीं ज़्यादा कराहते हुए ‘उह-आह’
की आवाज़ करने लगता है।
“बाप रे... तू और तेरी ओवरएक्टिंग!”
दोनों इस बात पर हंसने लगते हैं। इसी में सही
मौका देखकर सुधा तीन-चार बार फोटो ले लेती है। फिर सब फोटो का विश्लेषण और समीक्षा
में लग जाती है कि किसी में बाल सही नहीं लग रहे थे,
किसी में आँखें बंद थी और किसी में कोई और आकार फोटोबोंबिंग कर देता है।
खैर, इस कठिन परिश्रम के बाद एक फोटो उसको बाकी
सब से बेहतर लगता है तो वह उसको फ़ेसबूक पर साझा कर देती है। जब रजत को वही तस्वीर
दिखती है तो रजत सर हिलाकर अपनी स्वीकृति दे देता है।
“तुझसे सच में कभी कहीं पर किसी के साथ रुकने का
मन नहीं किया?”
“तुझे सच में चैन नहीं मिलेगा ना बिना सब कुछ
जाने हुए?”
“जी नहीं! बोल ना”
“हम्म... किया तो है।“
सुधा की बांछे खिल जाती है और आँखें चमक उठती
हैं।
“कब? कौन
थी? क्या हुआ फिर?”
“बहुत बार किया है। अभी भी कर रहा है। लेकिन
क्या करें... तू शादीशुदा है” कहकर रजत सुधा कि तरफ़ आँख मार देता है।
सुधा का चेहरा ऐसा उतरा मानो किसी ने उसके
गुब्बारे में सुई चुभा दी हो।
“तू फिर से बात घुमाने लगा?”
“नहीं यार। सच में। लेकिन हालात कुछ ऐसे होते
हैं कि कभी जीवन-धारा हमें खींच ले जाती है और कभी हम किसी और को खिंचता हुआ देखते
हैं”
“हाँ, तो
जब ऐसा हो तो सामने वाले को ज़ोर से पकड़ के रखना चाहिए”
“पता नहीं यार। मुझे रिश्तों में ज़बरदस्ती पसंद
नहीं है। कितना ही आप किसी को रोक सकते हो?”
“अरे लेकिन एफर्ट भी तो मारना चाहिए कि नहीं?
ऐसे तो सब चीज़ को आसानी से छोड़ दोगे”
“लेकिन तू तो आज भी यहीं हैं”
“वो तो इसलिए कि मैंने एफर्ट मारे हैं”
“चल झूठी। जितनी बार मिले हैं,
मैं ही तेरे शहर आया हूँ। तू कब आए मुझसे मिलने?”
“वो बात सही है... लेकिन एफर्ट मैंने ही ज़्यादा
मारे हैं”
रजत हंस देता है ये जानते हुए कि उसके लिए यह एक
हारा हुआ विवाद था। सुधा मानेगी नहीं। और शायद किसी स्तर पर वह सही भी थी। रिश्तों
कि एक डोर वह हमेशा थामे रहती थी। बात-बेबात वह दोस्तों से समय निकाल कर मिल लेती
थी। बस संयोग ऐसा था कि जब-जब जहाँ-जहाँ वह रह रहा था,
उसका आना नहीं हुआ। और कौन ही भला बस दोस्तों से मिलने कहीं जाता है?
कहीं काम पर गए, वहाँ अगर कोई दोस्त रहता हो,
तो उससे मिल लिया। ऐसे यत्न करके मिले, ऐसा भलामानुस
शायद ही कोई और इस धरती पर हो।
“बोल ना,
तुझे सच में कभी सैटल होने का मन नहीं किया किसी के साथ?”
सुधा वापस वही सवाल करती है।
“क्या करना है सैटल होकर?
जो हो गए वो भी कौन से खुश हैं। रोज़-रोज़ के कलेश! फिर बच्चे हो गए तो सही राह पर
है की नहीं। उसके बाद वो अपने राह चल देते हैं तो फिर से अकेलापन झेलो। बोल ना,
सैटल होकर भी कौन ही खुश है?”
“मैं तो हूँ!”
“बस तू ही है। यहीं देख ले... वो देख वो कपल...
मुश्किल से बीस-इक्कीस साल के हुए होंगे अभी,
रिश्ते को दो साल शायद ना हुआ हो लेकिन देख यहाँ आकार भी गुस्सा हो रहे हैं। वो
उधर देख उस बूढ़े-बूढ़ी को। अकेले एकदम!
क्या उनको नहीं लगता होगा की बेटा-बहू होते अभी साथ में तो अच्छा होता?
और बाकी लोग जो हैं क्या वह अपने पति-पत्नी से या उनके या अपने ही परिवार से खुश
हैं?”
रजत अनवरत बोलता जाता है,
“लोग
अब कहाँ समर्पित होते हैं एक-दूसरे के लिए। तुझे अगर मिला है तो किस्मत वाली है
तू। सब के नसीब में नहीं होती है ये खुशी। यहीं देख ले,
ये सब लोग कुछ-ना-कुछ छुपा रहे हैं एक-दूसरे से। कोई अफ़ेयर,
कोई फ़ालतू के खर्चे, कोई अपनी बुरी
आदतें... अगर इतना ही छुपना-छिपाना है तो क्या ही फ़ायदा एक-दूसरे के साथ होने का?
तू ही बोल कि क्या फ़ायदा है ऐसे ‘सेटल’
होने का?
और तू कहती है कि तू खुश है?
लेकिन क्या सच में खुश है? यहाँ
से भाग जाने का मन नहीं करता कभी? इतना
पोलुशन, इतनी भीड़,
और इस भीड़ में भी कहने को बस एक इंसान। और देख वह भी अपने काम में व्यस्त है। ऐसा
नहीं है कि उसे हर वक़्त तुम्हारे साथ होना चाहिए,
लेकिन इस माहौल को देख... तुझे मन नहीं करता कि यहाँ पर तुझे उसका साथ होना चाहिए
था? तू ही बोल,
अभी भी वो प्यार है जो पच्चीस साल पहले था।?”
सुधा को ये बात बींध गयी। वह जानती थी की जो वह कह
रही है वह बात तो ठीक है,
लेकिन रजत भी किसी हद तक सही ही कह रहा था। एक ही बात पर दो अलग तर्क सही हो सकते
हैं, अगर आप अपना नज़रिया बादल सके तो। रजत को
भी लगता है कि रोष में उसने एक सीमा लांघ दी है तो वह एकाएक चुप हो जाता है।
“समय के साथ हर चीज़ बदलती है,
रजत। प्यार भी और प्यार जताने का तरीका भी। सौरव और मैं अब शायद अपने-अपने काम में
ज़्यादा लगे हुए हों, लेकिन काम कितना भी हो
हर शाम सात बजे दोनों घर पर होते हैं। शायद ऐसे ही हमारा प्यार कामयाब होता है”
थोड़ी देर के लिए दोनों के बीच चुप्पी छा जाती
है। कुछ देर बाद, सुधा हल्के से बोलती
है, “चल थोड़ा सा चल लेते हैं। बैठे-बैठे मेरे
पैर सो गए हैं”
दोनों उठते हैं और हाथ में चप्पल लिए दोनों चुप्पी
में समंदर के समानांतर चलने लगते हैं।
“और कुछ खाएगी?”
रजत चारों ओर हो रहे कोलाहल के गर्भ में इन दोनों के बीच बढ़ रही स्तब्धता को तोड़ते
हुए पूछता है। सुधा मुड़कर उसे देखती है। रजत उसकी ओर नहीं देख रहा था,
लेकिन सुधा की नज़र को भाँप कर उसके तरफ़ मुड़ कर हल्के से मुस्कुरा देता है।
दोनों थोड़ी देर और आगे चलते हैं। दोनों ही सोच
रहे होते हैं कि आज भी कैसे निःसंकोच एक-दूसरे से बात कर सकते थे। ऐसी दोस्ती क़ायम
रखना भी अपने में ही एक उपलब्धि है। चलते हुए सुधा कंधे से हल्का से धकेल कर उसको
पानी की तरफ़ मुड़ने को इशारा करती है। शायद दो फ़ीट की दूरी बची थी इन दोनों में और
समंदर की लहरों में, जो रेत को चूम कर,
उनको भिगो कर वापस चली जा रही थी। ना रजत ने अपनी पतलून ऊपर की और ना ही सुधा ने
अपनी साड़ी को ऊपर किया। दोनों थोड़ी देर तक वहाँ खड़े रहे। पानी उनके टखनों तक आ रहा
था। लगातार लहरों के आने-जाने से उनके पैरों के आस-पास की रेत बह गयी थी और उनके
पैरों के चारों ओर एक-चौथाई इंच का गड्ढा बन गया था। समंदर से आने वाली नमकीन हवा
में रह-रह कर गर्मी की भभक महसूस हो रही थी। ऐसा लग रहा था कि ये हवाएँ भी जीवन के
सुख-दुःख के पैमाने पर अपनी शीतलता और ऊष्मा तौल रही हों।
“घर चल। तू ही बनाएगा” सुधा शून्य को ताकते
अंततः अपना जवाब देती है।
“कुछ स्पेशल बनाना है?”
“ना, जो
होगा फ्रिज में देख लेना। उसी का कुछ बना देना। सौरव भी थोड़ी देर में पहुंचता ही
होगा”
रजत भी क्षितिज को देखते हुए हामी में सर हिलाता
है और पलट जाता है। पिंडलियों तक गीले हुए,
हाथ में चप्पल लिए दोनों सुधा की गाड़ी के तरफ़ चलने लगते हैं।
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