पापा के साथ मेरे प्रयोग
सामन्यतः हमारे घरों में एक प्राणी
पाया जाता है. नर वर्ग का यह प्राणी आपको कहीं भी दिख सकता है. परंतु बचपन में अधिकांशत:
लोग इसे देख नही पाते. बचपन मे आपने इस प्राणी के बारे में सिर्फ किंवदंतियां ही
सुनी होगी. क्युंकि जब ये प्राणी घर में प्रस्तुत होता है, तब आप सुप्तवस्था में होते हैं. कुछ भाग्यशाली लोगों को छुट्टी के दिन
में इनको देखने का लाभ प्राप्त होता था. खैर मेरी कहानी में तो बहुत सालों तक मैं
तो इस प्राणी के बारे में बस इतना ही जानता था की इसके दो पैर होते हैं. क्योंकि
डर के मारे हिम्मत ही नही होती थी की नज़र उठा के देखा जाये की ये दिखता कैसा है.
तो अपन तो बस शुतुर्मुर्ग कि तरह रेत में सर घुसा के यही आशा करते थे की जैसे हम
इसे नही देख पा रहें हैं, वैसे ही ये भी हमें देखने में विफल
रहे.
इस
प्राणी के वैसे तो कई नाम हैं,
लेकिन इस लेख कि दृष्टि से हम इस प्राणी को पापा कहके ही सम्बोधित करेंगे. वन-टू-थ्री
नामक चलचित्र में श्री डिमेलो(ज़) यादव(ज़) अपने आपको ‘पापा’ कहलवाते थे क्युंकि वो बस पाना जानते थे. लेकिन अपने अनुभव में तो हमने
इन्हें बस देते हुए ही देखा है. जब छोटे थे तो चलनेके लिये सहारा देते देखा और जब
थोड़े बड़े हुए तो सबक और सीख देते देखा. जब अच्छा काम किया तो शाबाशी देते देखा और
जब अंट-शंट हरकत की तो कान के नीचे ज़ोर के दो देते हुए भी देखा.
हाँ
तो हम कहाँ थे? हाँ! की बचपन में
कैसा अनुभव रहा. तो पिता जी सुबह ऑफिस चले जाते और अपन स्कूल. शाम को आकर वही
भाई-बहन की चिल्ल-पौं मची रहती. जैसे ही शाम होती, वैसे ही दादी
या माँ या नौकर बिगुल बजाते की ‘खबरदार, होशियार, पिताजी घर पधार रहे हैं!’. ये सुनना था और तीनों भाई-बहन बिजली की गति को मात देते हुए किताब में ऐसे
घुसते मानो अभी जो घर में हाहाकार मचा हुआ था वो तो 1988 के भूचाल का नतीजा था. तो
पापा कमरे मे आये और अपन ने सर भी नही उठाया. बस उनके पदचाप सुनके ही ‘गूड इवनिंग पापा’ बोल दिया. इसी चक्कर में कई साल तक
पता ही नही चला की उनका चहरा कैसा दिखता था. हाँ, उनके पैर कैसे
दिखते ये तो अपन 15000 की भीड़ में भी पहचान लें.
अच्छा
अब क्या, अपन ठहरे पढ़ाकु
प्रवृत्ति के जंतु. कोर्स वाली किताबों के नही, कहानियों की किताबें
पढ़ने वाले पढाकु. तो जब लगभग 17-18 साल के थे तो एक बार रेल से सफर करते वक़्त एक
किताब खरीद ली. उसका शीर्षक था: सम्पूर्ण चाणक्य नीति. उसके एक पृष्ठ पे लिखा था:
बच्चे को 5 साल की उमर तक खूब लाड करें, उसके बाद अगले 10
सालों मे शाषण करें और फिर मित्र जैसा व्य्वहार करें (फिर से पढ़ लो नासपीटों, शाषण लिखा है, शोषण नहीं). ये ले गया मैं पापा के
पास की “देखो, ऐसे करते हैं परवरिश. किया था आपने ऐसे? हर समय खाली पढ़ाई करो, पढ़ाई करो.” पापा ने धीरे से मुस्कुराया
और कहा “देखें ज़रा”, हाथ से किताब ली और बोले “जाओ, पढ़ाई करो”. मैं ठगा सा खड़ा खुद को कोस रहा हुं कि क्या पड़ी थी मुझे जो
पापा को ज्ञान देने निकला था. तब तो एहसास हुआ नही, लेकिन उस
वाक्ये के करीब 2-3 साल बाद लगा कि अरे, जो चाणक्य ने कहा था, पापा ने तो उस किताब को बिना पढ़े ही उससे बेहतर परवरिश की थी. और इस बात का
एहसास भी नही हुआ की कब उनका हाथ हमारे सर से हमारे कंधे पे आ गया.
हम
तो पढ़ाकु हैं ही, पापा अपन से भी दो कदम
आगे थे. बिहार में पले-बढ़े थे, तो गणित में थे अव्वल. इतने
अव्वल कि डबल प्रोमोशन भी मिला था. और अपना तो 11-12 में ये किस्सा था कि ‘ग’ से गणित और ‘ग’ से गोबर एक ही था हमारे लिए. सो बाकि सब विषय में 90+ लाने के बावजूद, गणित में वही ढाक के तीन पात. हम तो छोड़ने ही वाले थे लेकिन उनको बिना
बताये सब्जेक्ट चेंज भी नही कर सकते. तो गये अपन अर्ज़ी लेके. लेकिन पापा के अदालत में
ना तारिख मिलती ना ही इंसाफ. मुझे मिले तो कुछ चंद शब्द. अब अक्खड़ इंसान उस वक़्त
यही सोचा की अगर 12वीं के परिणाम में एक विषय के लिये कचरा हुआ तो उसका श्रेय
श्रद्धेय पिता श्री को ही जायेगा. लेकिन अगले 12 महिने में पता नही क्या हुआ. गणित
अचानक ही मज़ेदार हो गया. इतना की उस वार्तालाप के 4 साल बाद अपन युनिवर्सिटी टॉप
कर गये वही गणित के विषय में. शायद उनको भविष्य दिखता होगा.
अच्छा
आपको एक राज़ की बात बताता हुं. ये जो पापा लोग होते हैं ना, इनको जादू आता है. अगर इनको 100 रुपये भी मिलें ना तो भी ये उतनी हि
सरलतासे घर चला लेंगे जितनी सरलता से 100000 में चलाते हों. आपको नया कोम्पास
बोक्स चाहिये, उन्होनें हवा में हाथ घुमाया और आपके हाथ में
खालिस नया बोक्स लेके धर दिया की लो बेटा ढेर सारा सर्कल बनओ, ढेर सारा आइसोसेलेस त्रिकोण बनओ. गर्मी कि छुट्टियों में अकेले कमाने वला
आदमी 5 लोगों को 15 दिन के भारत भ्रमण पे ले जाता था और यहाँ अपन अकेले कमा रहे, अकेले खा रहें, ना आज की चिंता, ना कल कि फिकर, फिर भी जब 4 दिन कि छुट्टी में कहीं
घूमने जाने का सोचो तो ये लगने लगता है कि महिने के अंत तक खाने के पैसे बचेंगे कि
नही. पता नही कौन सा मंतर जानते हैं पापा! शायद उनके हाथ में पैसा फूल जाता होगा.
खैर, वो पैसे को मेहनत से सींचते भी होंगे. अपन तो बस
चिल्लैक्स हो के घूमते रहते हैं. मतलब आप कोंट्रास्ट देखो, बाप
अर्थशास्त्र का विद्वान और बेटा अनर्थशास्त्र का पोंगा पंडित.
इन
पापा लोगों की ना एक विशेषता होती है की जो-जो काम वो नही कर पाये, वो उनका बेटा या बेटी करे. तो अगर कोई परिक्षा मे पास करने में वो विफल रहे
तो इच्छा है की बेटा उसको पास कर जाए. कोई विशेष नौकरी नही लगी तो मन है की बेटा उस
नौकरी को पा ले. कोई सम्पत्ति लेने मे चूक गए तो लगता है की बेटा वो खरीद के सपना पूरा
करे. शायद इसिलिए वो मेरी शादी नही करा रहे की ‘भाई, शादी तो मैं कर ही चुका हुँ. ये तो कुछ भी नही’. बादशाह
जहाँगिर ने कश्मीर के बारे में कहा था, ‘गर फिरदौस रुहे ज़मीं अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो’ की अगर
दुनिया में कहीं स्वर्ग है, तो वो यहीं है. उनका कहना बनता भी
था. उन्होने कौन सा अकबर को खुश किया था? अकबर तो बेचारे ‘सलीम!’ और ‘अनारकली को दिवाल मे
चिनवा दो’ करते करते ही मर गये. जहाँगिर के प्रतिकूल मुझे तो
धरती पर स्वर्ग तब-तब दिख जाता,जब-जब अपने पापा को गौरवांवित
करता हुँ. जब-जब मेरे किसी काम से उन्हें खुशी मिलती है, मुझे
स्वर्ग प्राप्त हो जाता है. (और जैसे मेरे करम हैं, ऐसे ही स्वर्ग
मिलेगा. ऊपर में असली वाला स्वर्ग से तो धक्के मार के निकाल दिया जायेगा. वही वाक्य
के साथ जो असंख्य लड़कियों ने मुझे कहा है, ‘शकल देखी है अपनी? आया बड़ा, स्वर्ग
जाना है इनको! हुँह!’)
आप
ध्यान दिजियेगा की जब टीवी पर कोई खाने का प्रोग्राम चल रहा होता है तो आपकी भी भूख
अचानक बढ़ जाती है. वैसे ही पिछ्ले दो घंटे से इतने बार पापा-पापा लिख लिया है की अब
अपना भी मन पापा बनने का कर रहा है. लेकिन उससे पहले शादी करनी होगी. इसकी भी अर्ज़ी
लेकर पापा के पास ही जाना होगा. आशा करता हुँ की पापा शादी कि अर्ज़ी और गणित छोड़ने की
अर्ज़ी में कंफ्युज़ नही होंगे और आसानी से हाँ कर देंगे.
Well, all that I can say is, papa class is unique. I can relate to quite a lot of points. The only thing is I don't remember sitting quietly when my father used to come home. And inspite of all the humour your love and respect for your father shines through it.
ReplyDelete@Captain Marble....ab rulayega kya pagle! But reading such sweet thoughts for a magician called Dad is an amazing feeling....good going dude
ReplyDeleteThank you ladies. I know every girl's first hero is her dad. But us guys, we turn it up a notch higher. Dads are our first superheroes. And since they are such underrated characters, I believe they deserved this round of cheer, specially for them.
ReplyDelete"Shayad unke haath me paisa fool jata hoga.".You have grown much, boy...err Man. Now, you are no longer mere player of words..wo kahte hain Na..labzon ke sabzbaag lagaate the....
ReplyDeleteNow you have started feeling.
I want to cry today.Iti
Probably one of the best compliments paid to me. Never believed this would evoke so many memories in all of you. Thanks for being a part of this.
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