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ये रास्ते थोड़े परेशान हो रखे हैं

पल-पल सीने में हलचल बढ़ती है कहीं पर इंतज़ार की बाती जलती है खुद की परछाई देख ही अब सिहर उठते हैं ये रास्ते थोड़े परेशान हो रखे हैं।  कहीं शोर, कहीं सिर्फ़ कोलाहल सुनाई देता पुकारने पर भी कोई किसी की सुध नहीं लेता भीड़ में सब यहाँ अकेले खड़े हैं ये रास्ते थोड़े वीरान हो रखे हैं।  शहर अब ये पहचाना नहीं जाता समझ में किसी के ये तमाशा नहीं आता सब ने चमड़ों के मुखौटे लगा रखे हैं ये रास्ते थोड़े से अंजान हो रखे हैं।  शहर जलता है तो जलने देते हैं नफ़रतों को अक्स पर पलने देते हैं जलन से ज्वलन के जज़्बात समेटे रखते हैं ये रास्ते थोड़े हैवान हो रखे हैं।  रह-रह कर इंसानियत की सड़ांध उठती है दरख्तों की भी यहाँ सांसें घुटती है जो ज़िंदा हैं वो भी बुत बने खड़े हैं ये रास्ते मसान हो रखे हैं।  अब कहाँ अर्ज़ी दें, कहाँ फरियाद करें कोई क्यों किसी की यहाँ परवाह करे खुदगर्ज़ी के मंज़र यहाँ आम हो रखे हैं ये रास्ते थोड़े परेशान हो रखे हैं।  इस कविता के शीर्षक का श्रेय मैं अपने मित्र गौतम भास्कर को देता हूँ। एक दिन शहर से लौटते वक़्त गाड़ियों की तीव्र आवाजाही से सचेत करते हुए उसने यह वाक्य कहा था। मै...

अनमना शहर

अनमना सा , अलसाया सा , अंगड़ाता शहर छोटे से स्टेशन के समीप खड़ा औंघता शहर सँकरे रास्तों और गलियों में उलझता शहर अरमानों के उफ़ान पर बढ़े चलता शहर   अंधी इस दौड़ में पीछे छूटता शहर खाली होते घरौंदों में टूटता शहर खुद ही की ठोकर से चोट खाता शहर खुद की ही आंसुओं का मरहम लगाता शहर   वो ‘ उन दिनों ’ की यादों में जीता शहर स्टील के टिफ़िन में दिन बिताता शहर संदली सी शामों में घर लौटता शहर वो खामोशी की चादर को खुद पर ओढ़ता शहर   धुंध के लिबास में नींदें तोड़ता शहर सर्दियों के अलाव में किस्से सुनाता शहर गर्मियों में पड़ोसियों के आम चुराता शहर शरद में बसंती हिलोरें मारता शहर   साँसों की कसौटी पर खुद को तराशता शहर खुद में ही खुद को तलाशता शहर चमचमाती लाइटों में खुद को खोता शहर मेरा अनमना सा , अलसाया सा , अंगड़ाता शहर

घाट बनारस

“झ्स्स…” की आवाज़ के साथ वैदेही ने माचिस जलाई और कमरे के अंधकार में माचिस की आभा में उसका चेहरा दीप्तिमान हो उठा। एक पल तो ऐसा था जब राघव को उसका चेहरा छोड़ और कुछ दिख ही नहीं रहा था। वैदेही ने माचिस से लालटेन की बाती को जलाया और पूरा कमरा उसके बसंती रोशनी से नहा गया। वैदेही ने उस पर शीशे की चिमनी डाली, जो सतत इस्तेमाल से थोड़ी स्याह हो चली थी। राघव ने कहा, “लाइट वापस आती है तो चिमनी साफ कर देता हूँ।” “आराम से करना”, वैदेही ने कहा, “पिछली बार तुमने जल्दी कर दी थी, और पानी पड़ते ही वो चटक गई थी। एक्सट्रा खर्चा नहीं करना है।” राघव वैदेही की इस बात पर उसकी तरफ़ दो पल टकटकी लगा कर देखता रहा। “क्या? मैं बस आगाह कर रही थी। अगले महीने दिल्ली जाना हुआ तो टिकट के खर्चे हो सकते हैं, इसीलिए बोल रही थी।” “जी, मेम साहब।” राघव ने इस तर्क को सही मानते हुए वैदेही को सलाम ठोक दिया। राघव और वैदेही को थोड़ा ही अरसा हुआ था बनारस आए हुए। बिजली ने तो रस्म बना ली थी हर शाम को मुंह चुराने की। अगर शाम को ठंडी हवा बहती तो ये छत पर हवा खा लेते थे। नहीं तो इन्होंने भी संध्या तिमिर को आत्मसात करते हुए शाम क...

भँवर

 मैं सोचना जो चाहूँ तो सोच मिलते नहीं मैं बोलना जो चाहूँ तो लफ़्ज़ मिलते नहीं ये जिसमें हूँ मैं जी रहा ये कैसी कश्मकश है की होंठ हैं सिले हुए और मन भी बेबस है ये चित्त भी अशांत है और विचार उलझे से हैं मुस्कान के पीछे मेरे होंठ मुरझे से हैं  ना कोई जान पाया है क्या है थाह मेरा मेरा प्रतिबिंब भी हो पाया है कहो कभी क्या मेरा मेरे शब्द उलझन में हैं की कौन से निकलने हैं की स्पष्ट हो रहा नहीं की किस डगर पर चलने हैं मेरे दिमाग में ठहरे हुए कुछ घने से मेघ हैं मैं छान पा रहा नहीं की थोड़े अभेद्य हैं कुछ निराशावादी हैं जो बार-बार आते हैं अवसाद में लिपटी हुए घटाएँ काली लाते हैं मैं साझा भी करूँ तो क्यों, इनसे तुम्हारा वास्ता क्या इस व्यूह से निकलने का है कोई रास्ता क्या  कुछ ऐसे भी राज़ हैं जिनकी गांठें खोलनी हैं कुछ ऐसे अलफ़ाज़ हैं जो अंततः बोलनी है मगर साहस होता नहीं, ये होंठ थरथराते हैं क्या होगा प्रभाव इसका, ये सोच भरमाते हैं घुले हुए हैं ऐसे कई ख्वाब-राज़ मन मेरे  रोकता इनको रोज़ हूँ, शून्य ताकता मनमरे संशय मेरे सुलझाए जो डोर वो मिलती नहीं बादलों से छंटी हुई सुबह वो खिलती नहीं...