कभी फ़ुर्सत हो तो वापस आना
कभी फ़ुर्सत हो तो वापस आना
की आजकल कोई दिखता नही जो अपना हो
अब आँखें मेरी सूख रही हैं इंतज़ार में
की शायद अभी ही आ रही होगी
और तुम्हारा अक्स धूमिल होता जा रहा अब
आके उसे ताज़ा कर जाना।
कभी फ़ुर्सत हो तो वापस आना
की भूल चला हूँ मैं तुम्हारी खुशबू
बस इतना ही याद है कि
गुलदस्तों के गुलाब अपना सर झुका लेते थे
और मोगरे की महक भी फीकी पड़ जाती थी
तुम्हारे आने से।
कभी फ़ुर्सत हो तो वापस आना
की एक अरसा हो गया है
तुम्हारे क़दमों की मौसिक़ी सुने हुए
की तुम्हारे आने का तराना
आज भी साज़िन्दों को शर्माने पर मजबूर कर दे।
कभी फ़ुर्सत हो तो वापस आना
की ज़ुबाँ पर तुम्हारा स्वाद आज भी बरकरार है
हाँ, लब मेरे अब ख़ुश्क हो चले हैं
साथ अपने बारिश लाना की फिर से इन्हें
अपने शहद से लबरेज़ करना है।
कभी फ़ुर्सत हो तो वापस आना
की तुम्हारी ख़ामोशी को महसूस किए हुए एक उम्र बीत गयी
और काफ़ी समय हो गया है सुने हुए
रात के सुकूत में सिर्फ़ तुम्हारे धड़कनों की गूंज
और सांसों के साथ समन्दर की लहरों के चढ़ने-उतरने की आवाज़ को।
कभी फ़ुर्सत हो तो वापस आना
और इस बार थोड़ा वक़्त हाथ में लेकर आना
की ज़िंदगी बिताने के लिए, पिछली बार
समय थोड़ा कम पड़ गया था, हम दोनों के पास।
वाह!!! गर्मी की इस कड़ी धूप में घने वृक्ष के छाँव की तरह तुम्हारी यह कविता सुकून देती हुई।
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