दूसरा अध्याय
मृत्यु एक घटना है वो सिर्फ बर्फ़ की तरह सुन्न कर देती है पीड़ा बाद में आती है काल की तपन में बूँद-बूँद पिघलती हुई। -निर्मल वर्मा शायद वो मृत्यु ही तो थी। किसी इंसान की नहीं। लेकिन जीवंत , ज्वलंत और जिजीविषा से भरपूर एक जीवन की। उसका एहसास मुझे तब नहीं हुआ था। ऐसा था मानो किसी ने एक झटके से मेरे सीने से दिल निकाल लिया था। लेकिन धमनियों में खून उसके बाद भी प्रवाहित था। वही खून मुझे पिछले पाँच महीने से चला रहा था। और मैं बस चल ही रहा था। बिना किसी भावना , किसी सोच के। पाँच महीने पहले वो अचानक से चली गयी। घर से भी , और मेरी ज़िंदगी से भी। मेरे लिए तो वो अचानक ही था। मगर शायद उतना भी अचानक नहीं था। जिस मकान को हम दोनों ने ईंट दर ईंट बनाया था , जिसे अंततः घर बनाना था , उसकी नींव में कब अविश्वास और नाखुशी ने घर कर लिया था , इसका मुझे एहसास भी नहीं था। शायद था भी , लेकिन मैंने ही उसे अनदेखा कर रखा था। और पाँच महीने पहले वो मकान अचानक भरभरा के गिर गया। उसने अपना सारा सामान समेटा और चली गयी अपनी सहेली के यहाँ। कुछ दिन तो मैं उसे ही दोषी मानता रहा , उसे ही कोसता रहा। लेकिन सच तो मु...