किसी और जनम में
किसी और जनम में किसी और जहाँ में मुझे पता है तुम मेरे हो जहाँ ना सरहदें हैं ना हदें हैं हैं तो बस मैं और तुम किसी और जनम में किसी और जहाँ में ना बंदिशें होंगी ना आज़माइशें होंगी जहाँ मुनासिब अल्फ़ाज़ होंगे जहाँ मुख्लिस अंदाज़ होंगे और होंगे सुनाने को कई किस्से और रोकने को होंगी नहीं समाज की ये बेड़ियाँ जहाँ मैं शायद इतना बिला-तकल्लुफ़ हूँ की खुद के जज़्बातों से रु-ब-रु हूँ जहाँ मैंने खुद से खुद को पर्दा नहीं किया जहाँ मैंने तुम्हें रुसवा नहीं किया किसी और जनम में किसी और जहाँ में मैं शायर नहीं हूँ की उस जनम में उस जहाँ में मैं इतना बदनसीब भी नहीं हूँ