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Showing posts from 2023

मेरा मन भागे चले है

मेरा मन भागे चले है  और मैं चला उसके पीछे उसे रोकने कभी इस डाल, कभी उस पात कभी सपने बुने ये भाँत-भाँत मैं पूछूँ इससे कि मन मेरे तू चाहे है क्या किस उलझन को है तू सुलझाने चला ये मुस्कुरा के बोले कि सब चाहिए अरे देखो कैसा बावला है मेरा मन किसी एक मकां में रहता नहीं किसी एक मुक़ाम पे टिकता नहीं कभी चाहे है कुबेर बने कभी चाहे बने भगवान कभी चाहे है समय को रोक ले नित नए बुने ये अरमान कभी चाहे ये ज़मीं इसकी हो और चाहे हो इसका आसमाँ कभी चाहे सब नतमस्तक हो सामने कभी चाहे जीत ले ये जहाँ अरे पूछ बावरे मुझसे भी कि मैं क्या चाहूं तेरे से जान ले कि मेरी तरज़ीह किसमे जो तेरे चाह बथेरे हैं मैं माँगता नही सब कुछ और किस्मत से ज़्यादा भी किसे क्या मिले है बस खुद को पा लूं मैं और हंसु जो ये दिन गिने-चुने हैं और चाहूँ तुझे समझाने को कि इतना क्यों व्याकुल है तू जो तू चाहे है सब कुछ ये चाहत एक भूल है, सुन सिकंदर को भी कहाँ सब कुछ था मिल पाया तो फिर तू क्यों चाहे है ये सब माया थोड़ा धीरज धर, थोड़ा खुद को टटोल थोड़ा खोज क्यों सुबकता है तू आकांक्षाओं के पीछे क्यों सिहरता है तू विफलताओं के पीछे जब है यहाँ चार दिन त...

क्या होता अगर हम ना मिले होते तो

क्या होता अगर हम ना मिले होते तो क्या होता बस 'हाय-हेलो' तक ही बातें होती हमारी क्या होता अगर साथ ना मुस्कुराते तो क्या होता अगर राहें ना जुड़ती हमारी क्या होता आँखे चार ना होती क्या होता अगर बातें ना चलती हमारी क्या होता अगर हम किरदार ना होते और क्या होता अगर कहानी ना बनती हमारी ना जान पाते तुम्हें हम ना हमें तुम जान पाते ना मौका मिलता फिर से एक बार जीने का ना मौका मिलता खुद को किसी से बाँटने का ना संयोग बनता इस दिल के फिर से धड़कने का ना संयोग बनता आईने में खुद को एक बार और देखने का और क्या हो गया जो तुम पूरे ना मिले हमें ऐसा तो नही की तुम बने ही नही हमारे तुम हमारी कविता बने तुम हमारी कहानी बने तुम पर हमने शेर लिखे और तुम हमारी शायरी बने तुम्हारा होना भले ही क्षणिक हो मेरी ज़िंदगी में और शायद मेरा होना तुम्हें बेमानी लगे मगर हम भी लिखारी हैं हम भी शब्दों के खिलाड़ी हैं किसी और से तुम मिलते तो शायद कुछ ना होता हमसे जो मिले हो तो कुछ अलग कर देंगे शब्दों में पिरो तुम्हें अमर कर देंगे और शायद ये कहानी तुम खुद भी लिख लेते पर शायद दुनिया को तुम्हें मेरे अल्फ़ाज़ों से ही रु-ब-रु होना था ...

सत्य की उलझन

शाम के तकरीबन चार-साढ़े चार बज रहे होंगे। कोलकाता मई की अकस्माक बारिश में खुद को धो रहा होता हैं। अजीत और सत्यवती बैठक में खिड़की के पास कुर्सी लगा कर रम्मी खेल रहे हैं। इतने में ही पूंटीराम चाय और प्याज़ के पकौड़े लाकर बीच में राखी कॉफी टेबल पर परोस देता है।  "और कुछ लगेगा, बहूमाँ?" "नहीं पूंटीराम। आप रसोईघर साफ़ कर दीजिये। और फिर थोड़ा आराम कर लीजिएगा। ये आते हैं तो पूछती हूँ क्या बनाना है रात के लिए।" अजीत अपने दाएँ जेब से सिगरेट की डिब्बी निकालता है। उससे एक सिगरेट निकाल कर होंठों के बीच में थामता है। माचिस जलाते हुए उसकी नज़र सत्यवती के चेहरे पर भरे अस्वीकृति वाले भाव पर पड़ती है।  "अरे पीने दो ना। बोउठान *, देखो कितना सुंदर माहौल बना हुआ है: बारिश, ताश, चाय और प्याज़ के पकौड़े! इसमें अगर सिगरेट नहीं रही तो एकदम किसी चीज़ का अभाव बना रहेगा।" "मुझसे क्यों अनुमति माँग रहे हैं, ठाकुरपो *? मैं कहाँ रोक रही हूँ? और जैसे मेरे मना करने से आप दोनों रुक जाएंगे।" अजीत सिगरेट सुलगा कर दो कश लगाता है। धुएँ के छल्ले बैठक में तैरने लगे। बाहर हो रही बारिश हवा के हर व...

काफ़ी रहा नहीं मैं

कभी वक़्त से जीता नहीं मैं कभी हालातों से भिड़ा नहीं मैं कभी बन्दिशों को तोड़ा नहीं, और  शायद कभी काफ़ी रहा नहीं मैं हसरतें भरी थी आँखों में और ख़्वाब सजाने से रुका नहीं मैं कभी अहम लम्हों में अलफ़ाज़ ने साथ छोड़ा और कभी काफ़ी रहा नहीं मैं कतरा-कतरा बिखरा भी था मैं ज़र्रा-ज़र्रा टूटा भी था मैं उन कतरों को समेटने में नाकाम मैं जाना कि शायद अभी काफ़ी रहा नहीं मैं वो होंठों का मिलना, तुम और मैं वो साँसों का घुलना, तुम और मैं वो रूहों के जुड़ने पर ख़ुदा राज़ी नहीं था या फिर शायद काफ़ी रहा नहीं मैं उन ख़्वाबों की ताबीर कर हमारी चाहतों की तामीर कर या तो वो लम्हें, वो यादें ही सराब हैं या कभी काफी रहा नहीं मैं ख़लिश को खुद पर ओढ़ता मैं अब ख़ुश्क ही खुश रहता मैं जी तो लूँ इकहरा भी, पर शायद खुद के लिए भी अब काफ़ी रहा नहीं मैं