दूसरा कर्ण
निर्वस्त्र, निरस्त्र खड़ा मैं रण में क्या ऐसा युद्ध स्वीकार्य धर्म में? वासुदेव, तुम कहो तो ये भी मान्य छला गया हूँ हर पल इस जन्म में इस जग में मेरा उपहास हुआ मेरे मान का ह्रास हुआ कुमारों की प्रतियोगिता में मेरे योग्यता पर अविश्वास हुआ गुरु ने भी समझा ना समान पार्थ हुआ सबका अमान सूत होना मेरा दोष हुआ क्या ना पुरुषार्थ देखा, ना वर्तमान तप से सींचा मैंने अपना बल फिर भी अपमान पिया जैसे हलाहल दुर्योधन ने अपनाया मुझे जब छिन गया था ममता का आँचल सब पूछे मुझसे पहचान मेरा मेरी भुजाएं ही हैं अभिमान मेरा कौन्तेय से ना कम कौशल में महाभारत रहेगा प्रमाण मेरा नियति ने भी क्या व्यूह रचा प्रथम पांडव भी बना प्रजा माता भी आई हृदय से लगाने तब जब महासमर का बिगुल बजा राधेय, तुम हंसी कर जाते हो अब तुम धर्म याद दिलाते हो पहले रखा धर्म देहरी के बाहर फिर अब क्यों विधि से कतराते हो? दोष नही तुम्हारा सूत होना है पर इस बात पर कुंठित होना है ध्यान इस पर नही कि क्या मिला पर जो ना मिला उस पर रोना है मित्र भी हुए तुम बहुत विशिष्ट दुर्योधन के हुए अति घनिष्ठ यह नही की उसे सन्मार्ग पर लाओ पापों में हुए समान लिप्त शकुनि, ...