मेरा मन भागे चले है
मेरा मन भागे चले है और मैं चला उसके पीछे उसे रोकने कभी इस डाल, कभी उस पात कभी सपने बुने ये भाँत-भाँत मैं पूछूँ इससे कि मन मेरे तू चाहे है क्या किस उलझन को है तू सुलझाने चला ये मुस्कुरा के बोले कि सब चाहिए अरे देखो कैसा बावला है मेरा मन किसी एक मकां में रहता नहीं किसी एक मुक़ाम पे टिकता नहीं कभी चाहे है कुबेर बने कभी चाहे बने भगवान कभी चाहे है समय को रोक ले नित नए बुने ये अरमान कभी चाहे ये ज़मीं इसकी हो और चाहे हो इसका आसमाँ कभी चाहे सब नतमस्तक हो सामने कभी चाहे जीत ले ये जहाँ अरे पूछ बावरे मुझसे भी कि मैं क्या चाहूं तेरे से जान ले कि मेरी तरज़ीह किसमे जो तेरे चाह बथेरे हैं मैं माँगता नही सब कुछ और किस्मत से ज़्यादा भी किसे क्या मिले है बस खुद को पा लूं मैं और हंसु जो ये दिन गिने-चुने हैं और चाहूँ तुझे समझाने को कि इतना क्यों व्याकुल है तू जो तू चाहे है सब कुछ ये चाहत एक भूल है, सुन सिकंदर को भी कहाँ सब कुछ था मिल पाया तो फिर तू क्यों चाहे है ये सब माया थोड़ा धीरज धर, थोड़ा खुद को टटोल थोड़ा खोज क्यों सुबकता है तू आकांक्षाओं के पीछे क्यों सिहरता है तू विफलताओं के पीछे जब है यहाँ चार दिन त...