काफ़ी रहा नहीं मैं
कभी वक़्त से जीता नहीं मैं कभी हालातों से भिड़ा नहीं मैं कभी बन्दिशों को तोड़ा नहीं, और शायद कभी काफ़ी रहा नहीं मैं हसरतें भरी थी आँखों में और ख़्वाब सजाने से रुका नहीं मैं कभी अहम लम्हों में अलफ़ाज़ ने साथ छोड़ा और कभी काफ़ी रहा नहीं मैं कतरा-कतरा बिखरा भी था मैं ज़र्रा-ज़र्रा टूटा भी था मैं उन कतरों को समेटने में नाकाम मैं जाना कि शायद अभी काफ़ी रहा नहीं मैं वो होंठों का मिलना, तुम और मैं वो साँसों का घुलना, तुम और मैं वो रूहों के जुड़ने पर ख़ुदा राज़ी नहीं था या फिर शायद काफ़ी रहा नहीं मैं उन ख़्वाबों की ताबीर कर हमारी चाहतों की तामीर कर या तो वो लम्हें, वो यादें ही सराब हैं या कभी काफी रहा नहीं मैं ख़लिश को खुद पर ओढ़ता मैं अब ख़ुश्क ही खुश रहता मैं जी तो लूँ इकहरा भी, पर शायद खुद के लिए भी अब काफ़ी रहा नहीं मैं