ये रास्ते थोड़े परेशान हो रखे हैं
पल-पल सीने में हलचल बढ़ती है कहीं पर इंतज़ार की बाती जलती है खुद की परछाई देख ही अब सिहर उठते हैं ये रास्ते थोड़े परेशान हो रखे हैं। कहीं शोर, कहीं सिर्फ़ कोलाहल सुनाई देता पुकारने पर भी कोई किसी की सुध नहीं लेता भीड़ में सब यहाँ अकेले खड़े हैं ये रास्ते थोड़े वीरान हो रखे हैं। शहर अब ये पहचाना नहीं जाता समझ में किसी के ये तमाशा नहीं आता सब ने चमड़ों के मुखौटे लगा रखे हैं ये रास्ते थोड़े से अंजान हो रखे हैं। शहर जलता है तो जलने देते हैं नफ़रतों को अक्स पर पलने देते हैं जलन से ज्वलन के जज़्बात समेटे रखते हैं ये रास्ते थोड़े हैवान हो रखे हैं। रह-रह कर इंसानियत की सड़ांध उठती है दरख्तों की भी यहाँ सांसें घुटती है जो ज़िंदा हैं वो भी बुत बने खड़े हैं ये रास्ते मसान हो रखे हैं। अब कहाँ अर्ज़ी दें, कहाँ फरियाद करें कोई क्यों किसी की यहाँ परवाह करे खुदगर्ज़ी के मंज़र यहाँ आम हो रखे हैं ये रास्ते थोड़े परेशान हो रखे हैं। इस कविता के शीर्षक का श्रेय मैं अपने मित्र गौतम भास्कर को देता हूँ। एक दिन शहर से लौटते वक़्त गाड़ियों की तीव्र आवाजाही से सचेत करते हुए उसने यह वाक्य कहा था। मै...