भँवर
मैं सोचना जो चाहूँ तो सोच मिलते नहीं मैं बोलना जो चाहूँ तो लफ़्ज़ मिलते नहीं ये जिसमें हूँ मैं जी रहा ये कैसी कश्मकश है की होंठ हैं सिले हुए और मन भी बेबस है ये चित्त भी अशांत है और विचार उलझे से हैं मुस्कान के पीछे मेरे होंठ मुरझे से हैं ना कोई जान पाया है क्या है थाह मेरा मेरा प्रतिबिंब भी हो पाया है कहो कभी क्या मेरा मेरे शब्द उलझन में हैं की कौन से निकलने हैं की स्पष्ट हो रहा नहीं की किस डगर पर चलने हैं मेरे दिमाग में ठहरे हुए कुछ घने से मेघ हैं मैं छान पा रहा नहीं की थोड़े अभेद्य हैं कुछ निराशावादी हैं जो बार-बार आते हैं अवसाद में लिपटी हुए घटाएँ काली लाते हैं मैं साझा भी करूँ तो क्यों, इनसे तुम्हारा वास्ता क्या इस व्यूह से निकलने का है कोई रास्ता क्या कुछ ऐसे भी राज़ हैं जिनकी गांठें खोलनी हैं कुछ ऐसे अलफ़ाज़ हैं जो अंततः बोलनी है मगर साहस होता नहीं, ये होंठ थरथराते हैं क्या होगा प्रभाव इसका, ये सोच भरमाते हैं घुले हुए हैं ऐसे कई ख्वाब-राज़ मन मेरे रोकता इनको रोज़ हूँ, शून्य ताकता मनमरे संशय मेरे सुलझाए जो डोर वो मिलती नहीं बादलों से छंटी हुई सुबह वो खिलती नहीं...