खुद से ख़फ़ा
आज चलो बचपन वापस जी आते हैं कॉपी-किताबों पर थोड़ा कम समय बिताते हैं जो कर ना पाए शरारत हम, उस पर ही सही चलो आज खुद से ख़फ़ा हो जाते हैं दोस्तों के साथ थोड़ा और 'अड्डा' जमाते हैं दिन ढले भी मटरगश्ती करते जाते हैं थोड़ी देर और यादें बनाते हैं, और जो बन ना पाई उन यादों की खातिर आज खुद से ख़फ़ा हो जाते हैं अपने होंठों से आज चुप्पी की बंदिश हटाते हैं जिन्हें जता न सके हम, उनसे इक़रार कर आते हैं घड़ी की सुइयों को वापस घुमाते हैं, इज़हार कर जाते हैं और उन खामोशियों के नाम पे चलो आज खुद से ख़फ़ा हो जाते हैं माँ-बाप के साथ थोड़ा और वक़्त बिताते हैं उनकी हँसी को वापस लाते हैं जो हिस्से का वक़्त अपनी आकांक्षाओं पर दे दिया उन लम्हों की ख़ातिर आज खुद से ख़फ़ा हो जाते हैं